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चौथा उद्देशक]
[३४५ लिए निवेदन करना आदि प्रवृत्तियां करनी चाहिये तथा अन्य सभी साधु-साध्वियों को भी प्रमुख स्थविर संतों को सहयोग देना चाहिए, किन्तु अपने-अपने विचारों की सिद्धि के लिये निन्दा, द्वेष, कलह या संघभेद आदि अनुचित तरीकों से पद छुड़ाना या कपट-चालाकी से प्राप्त करने की कोशिश करना उचित नहीं है।
___ गच्छ-भार संभालने वाले पूर्व के आचार्य का तथा गच्छ के अन्य प्रमुख स्थविर संतों का यह कर्तव्य है कि वे निष्पक्ष भव से तथा विशाल दृष्टि से गच्छ एवं जिनशासन का हित सोचकर आगम निर्दिष्ट गुणों से सम्पन्न भिक्षु को ही पद पर नियुक्त करें।
कई साधु स्वयं ही आचार्य बनने का संकल्प कर लेते हैं, वे ही कभी अशांत एवं क्लेश की स्थिति पैदा करते हैं या करवाते हैं, किन्तु मोक्ष की साधना के लिए संयमरत भिक्षु को जल-कमलवत् निर्लेप रहकर एकत्व आदि भावना में तल्लीन रहना चाहिये। किसी भी पद की चाहना करना या पद के लिए लालायित रहना भी संयम का दूषण है। इस चाहना में बाह्य ऋद्धि की इच्छा होने से इसका समावेश लोभ नामक पाप से होता है तथा उस इच्छा की पूर्ति में अनेक प्रकार के संयमविपरीत संकल्प एवं कुटिलनीति आदि का अवलंबन भी लिया जाता है, जिससे संयम की हानि एवं विराधना होती है। साथ ही मानकषाय की अत्यधिक पुष्टि होती है।
निशीथ उद्दे. १७ में अपने आचार्यत्व के सूचक लक्षणों को प्रकट करने वाले को प्रायश्चित्त का पात्र कहा गया है।
अतः संयमसाधना में लीन गुणसंपन्न भिक्षु को यदि आचार्य या अन्य गच्छप्रमुख स्थविर ही गच्छभार सम्भालने के लिए कहें या आज्ञा दें तो अपनी क्षमता का एवं अवसर का विचार कर उसे स्वीकार करना चाहिए किन्तु स्वयं ही आचार्यपदप्राप्ति के लिये संकल्पबद्ध होना एवं न मिलने पर गण का त्याग कर देना आदि सर्वथा अनुचित है।
इस प्रकार इस सूत्र में निर्दिष्ट सम्पूर्ण सूचनाओं को समझ कर सूत्रनिर्दिष्ट विधि से पद प्रदान करना चाहिए और इससे विपरीत अयोग्य एवं अनुचित मार्ग स्वीकार नहीं करना चाहिए।
इस सूत्र से यह भी स्पष्ट होता है कि स्याद्वाद सिद्धांत वाले वीतरागमार्ग में विनयव्यवहार एवं आज्ञापालन में भी अनेकांतिक विधान हैं, अर्थात् विनय के नाम से केवल 'बाबावाक्यं प्रमाणम्' का निर्दश नहीं है। इसी कारण आचार्य द्वारा निर्दिष्ट भिक्षु की योग्यता-अयोग्यता की विचारणा एवं नियुक्ति का अधिकार सूचित किया गया है।
__ऐसे आगमविधानों के होते हुये भी परम्परा के आग्रह से या 'बाबावाक्यं प्रमाणम्' की उक्ति चरितार्थ करके आगमविपरीत प्रवृत्ति करना अथवा भद्रिक एवं अकुशल सर्वरत्नाधिक साधुओं को गच्छप्रमुख रूप में स्वीकार कर लेना गच्छ एवं जिनशासन के सर्वतोमुखी पतन का ही मार्ग है।
___ अतः स्याद्वादमार्ग को प्राप्त करके आगमविपरीत परंपरा एवं निर्णय को प्रमुखता न देकर सदा जिनाज्ञा एवं शास्त्राज्ञा को ही प्रमुखता देनी चाहिये।