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________________ ३४० ] [ व्यवहारसूत्र सकते हैं। इससे यह नियम फलित हो जाता है कि वे कभी भी अकेले विहार नहीं कर सकते और एक साधु को साथ लेकर केवल दो ठाणा से चातुर्मास भी नहीं कर सकते । नववें - दसवें सूत्र में यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि जहाँ हेमन्त ग्रीष्म ऋतु में या चातुर्मास में अनेक आचार्य-उपाध्याय साथ में हों तो भी प्रत्येक - उपाध्याय की अपनी-अपनी निश्रा में सूत्र में कहे अनुसार सन्त साथ में होना आवश्यक है, अर्थात् एक आचार्य - उपाध्याय के निश्रागत साधुओं से अन्य आचार्य-उपाध्याय को रहना नहीं कल्पता है। इससे यह फलित होता है कि अन्य किसी साधु के बिना केवल २-३ आचार्य-उपाध्याय ही साथ में रहना चाहें तो नहीं रह सकते हैं या आवश्यक साधुओं से कम साधु साथ रखकर भी अनेक आचार्य - उपाध्याय साथ में नहीं रह सकते और रहने पर सूत्रोक्त मर्यादा का उल्लंघन होता है। गणावच्छेदक हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में कम से कम दो साधुओं को साथ रखकर कुल तीन ठाणा से विचरण कर सकते हैं और अन्य तीन साधुओं को साथ लेकर कुल चार ठाणा से चातुर्मास कर सकते हैं। इससे कम साधुओं से रहना गणावच्छेदक के लिए निषिद्ध है । अतः वे दो ठाणा से विचरण नहीं कर सकते और तीन ठाणा से चातुर्मास नहीं कर सकते । 1 नववें एवं दसवें सूत्र के अनुसार अनेक गणावच्छेदक साथ हो जाएं तो भी उन्हें अपनीअपनी निश्रा में ऊपर कही गई संख्या के सन्तों को रखना आवश्यक है। वे अन्य गणावच्छेदक आदि को या उनके साथ रहे सन्तों को अपनी निश्रा में गिनकर नहीं रह सकते एवं स्वयं को भी अन्य की निश्रा में गिनकर नहीं रह सकते । ये तीनों पदवीधर कोई प्रतिमाएं या अभिग्रह धारण कर स्वतन्त्र एकाकी विचरण करना चाहें अथवा अन्य विशेष परिस्थितियों से विवश होकर एकाकी विचरण करना चाहें तो उन्हें अपने आचार्य आदि पद का त्याग करना आवश्यक हो जाता है तथा अन्य किसी को उस पद पर नियुक्त करना भी आवश्यक होता है। आचार्य-उपाध्याय संघ के प्रतिष्ठित पदवीधर होते हैं। इनका एकाकी विचरण एवं दो ठाणा से चातुर्मास करना संघ के लिए शोभाजनक नहीं होता है। यद्यपि गणावच्छेदक आचार्य के नेतृत्व में कार्यवाहक पद है, तथापि इनके साथ के साधुओं की संख्या आचार्य से अधिक कही गई है। इसका कारण यह है कि इनका कार्यक्षेत्र अधिक होता है। सेवा, व्यवस्था आदि कार्यों में अधिक साधु साथ में हों तो उन्हें सुविधा रहती है । सूत्र में निर्दिष्ट संख्या से अधिक साधुओं के रहने का निषेध नहीं समझना चाहिए । संयम की सुविधानुसार अधिक सन्त भी साथ रहना चाहें तो रह सकते हैं । किन्तु अधिक सन्तों के साथ रहने में संयम की क्षति अर्थात् एषणासमिति एवं परिष्ठापनिकासमिति आदि भंग होती हो तो अल्प सन्तों से विचरण करना चाहिए।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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