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________________ चौथा उद्देशक] [३४१ अग्रणी साधु के काल करने पर शेष साधुओं का कर्तव्य ११. गामाणुगामं दूइज्जमाणे भिक्खूजं पुरओ कटु विहरइ, से य आहच्च वीसुंभेजा, अस्थि य इत्थ अण्णे केइ उवसंपज्जणारिहे से उपसंपजियव्वे। नत्थि य इत्थ अण्णे केइ उवसंपज्जणारिहे तस्स या अप्पणो कप्पाए असमत्ते कप्पइ एगाराइयाए पडिमाए जण्णं-जण्णं दिसंअण्णे साहम्मिया विहरंति तण्णं-तण्णं दिसंउवलित्तए। नो से कप्पइ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए। कप्पइ से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए। तंसि च णं कारणंसि निट्ठियंसि परो वएज्जा-'वसाहि अज्जो! एगरायं वा, दुरायं वा' एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए। नो से कप्पइ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए। जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसइ से संतरा छए वा परिहारे वा। १२. वासावासं पज्जोसविओ भिक्खूजं पुरओ कटु विहरइ से य आहच्च वीसुंभेज्जा, अत्थि य इत्थ अण्णे केइ आसंपज्जणारिहे से उवसंपजियव्वे। नत्थि य इत्थ अण्णे केइ उवसंपज्जणारिहे तस्स य अप्पणो कप्पाए असमत्ते कप्पड़ से एगराइयाए पडिमाए जण्णं-जण्णं दिसं अण्णे साहम्मिया विहरंति तण्णं-तण्णं दिसं उवलित्तए। नो से कप्पइ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए। कप्पइ से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए। तंसि च णं कारणंसि निट्ठयंसि परो वएज्जा-'वसाहि अजो! एगरायं वा, दुरायं वा' एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, नो से कप्पइ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए। जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसइ, से संतरा छेए वा परिहारे वा। ११. ग्रामानुग्राम विहार करता हुआ भिक्षु, जिनको अग्रणी मानकर विहार कर रहा हो और वह यदि कालधर्म-प्राप्त हो जाय तो शेष भिक्षुओं में जो भिक्षु योग्य हो, उसे अग्रणी बनाना चाहिए। यदि अन्य कोई भिक्षु अग्रणी होने योग्य न हो और स्वयं (रत्नाधिक) ने भी आचारप्रकल्प का अध्ययन पूर्ण न किया हो तो उसे मार्ग में विश्राम के लिए एक रात्रि ठहरते हुए जिस दिशा में अन्य स्वधर्मी विचरते हों, उस दिशा में जाना कल्पता है। मार्ग में उसे विचरने के लक्ष्य से ठहरना नहीं कल्पता है। यदि रोगादि का कारण हो तो अधिक ठहरना कल्पता है। रोगादि के समाप्त होने पर यदि कोई कहे कि-'हे आर्य! एक या दो रात और ठहरो' तो उसे एक या दो रात ठहरना कल्पता है, किन्तु एक या दो रात से अधिक ठहरना नहीं कल्पता है। जो भिक्षु वहां (कारण समाप्त होने के बाद) एक या दो रात से अधिक ठहरता है, वह मर्यादा उल्लंघन के कारण दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्त का पात्र होता है।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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