SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 414
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीसरा उद्देशक] [३३३ तीन वर्ष व्यतीत होने पर और चौथे वर्ष में प्रवेश करने पर यदि वह उपशान्त, उपरत, प्रतिविरत और निर्विकार हो जाए तो उसे आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना कल्पता विवेचन-पूर्व सूत्रपंचक में ब्रह्मचर्य पालन में असमर्थ भिक्षु एवं आचार्य आदि के लिए पदवी सम्बन्धी प्रायश्चित्त का विधान किया गया है और इस सूत्रपंचक में सामान्य रूप से संयम पालन में असमर्थ भिक्षु आदि के संयम त्यागकर जाने के बाद पुनः दीक्षा स्वीकार करने पर उसे पदवी देने या न देने का विधान किया गया है। ____ संयम के त्यागने में परीषह या उपसर्ग आदि कई कारण हो सकते हैं। ब्रह्मचर्य आदि महाव्रत पालन की अक्षमता का भी कारण हो सकता है। किसी भी कारण से संयम त्यागने वाला यदि पुनः दीक्षा ग्रहण करे तो उसे भी तीन वर्ष तक या जीवनपर्यन्त पदवी नहीं देने का वर्णन पूर्व सूत्रपंचक के समान यहां भी समझ लेना चाहिए तथा शब्दार्थ भी उसी के समान समझ लेना चाहिए। अनेक आगमों में संयम त्यागने का एवं परित्यक्त भोगों को पुनः स्वीकार करने का स्पष्ट निषेध किया गया है। दशवैकालिकसूत्र की प्रथम चूलिका में संयम त्यागने पर होने वाले अनेक अपायों (दुःखों) का कथन करके संयम में स्थिर रहने की प्रेरणा दी गई है। उस चूलिका का नाम भी 'रतिवाक्य' है, जिसका अर्थ है संयम में रुचि पैदा करने वाले शिक्षा-वचन। अतः उस अध्ययन का चिन्तन-मनन करके सदा संयम में चित्त स्थिर रखना चाहिए। पापजीवी बहुश्रुतों को पद देने का निषेध २३. भिक्खुय बहुस्सुए बब्भागमे बहुसो बहु-आगाढा-गाढेसुकारणेसुमाई मुसावाई, असुई, पावजीवी, जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। २४. गणावच्छेइए य बहुस्सुए बब्भागमे बहुसो बहु-आगाढा-गाढेसु कारणेसु माई मुसावाई, असुई, पावजीवी, जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। . २५. आयरिय-उवज्झाए य बहुस्सुए बब्भागमे बहुसो बहु-आगाढा-गाढेसुकारणेसुमाई मुसावाई, असुई, पावजीवी, जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। २६. बहवे भिक्खुणो बहुस्सुया बब्भागमा बहुसो बहु-आगाढा-गाढेसु कारणेसु माई मुसावाई, असुई, पावजीवी, जावज्जीवाए तेसिं तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। २७. बहवे गणावच्छेइया बहुस्सुया बब्भागमा बहुसो बहु-आगाढा-गाढेसुकारणेसुमाई
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy