SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 413
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ व्यवहारसूत्र तिहिं संवच्छरेहिं वीइक्कंतेहि, चउत्थगंसि संवच्छरंसि पट्ठियंसि ठियस्स, उवसंतस्स, उवरयस्स, पडिविरयस्स, निव्विगारस्स एवं से कप्पड़ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दित्तिए वा धारेत्तए वा । ३३२] २१. आयरिय-उवज्झाए य आयरिय-उवज्झायत्तं निक्खिवित्त ओहाएज्जा, तिण्णि संवच्छराणि तस्स तप्पत्तियं नो कप्पड़ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा । २२. आयरिय-उवज्झाए य आयरिय-उवज्झायत्तं निक्खिवित्ता ओहाएज्जा, तिण्णि संवच्छराणि तस्स तप्पत्तियं नो कप्पड़ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा । तिर्हि संवच्छरेहिं वीइक्कंतेहिं चउत्थगंसि संवच्छरंसि पट्ठियंसि ठियस्स, उवसंतस्स, उवरयस्स, पडिविरयस्स, निव्विगारस्स एवं से कप्पड़ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दित्तिए वा धारेत्त वा । १८. यदि कोई भिक्षु गण और संयम का परित्याग करके और वेष को छोड़कर के चला जाए और बाद में पुनः दीक्षित हो जाए तो उसे उक्त कारण से तीन वर्ष पर्यन्त आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है । तीन वर्ष व्यतीत होने पर और चौथे वर्ष में प्रवेश करने पर यदि वह उपशांत, उपरत, प्रतिविरत और निर्विकार हो जाय तो उसे आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना कल्पता है। १९. यदि कोई गणावच्छेदक अपना पद छोड़े बिना संयम का परित्याग करके और वेष छोड़कर चला जाए और बाद में पुनः दीक्षित हो जाए तो उसे उक्त कारण से यावज्जीवन आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है। २०. यदि कोई गणावच्छेदक अपना पद छोड़कर के तथा संयम का परित्याग करके और वेष छोड़कर चला जाए और बाद में पुनः दीक्षित हो जाए तो उसे उक्त कारण से तीन वर्ष पर्यन्त आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है। तीन वर्ष व्यतीत होने पर और चौथे वर्ष में प्रवेश करने पर यदि वह उपशान्त, उपरत, प्रतिविरत और निर्विकार हो जाए तो उसे आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना कल्पता है। २१. यदि कोई आचार्य या उपाध्याय अपना पद छोड़े बिना संयम का परित्याग करके और वेष छोड़कर चला जाए और बाद में पुनः दीक्षित हो जाए तो उसे उक्त कारण से यावज्जीवन आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है। २२. यदि कोई आचार्य या उपाध्याय अपना पद छोड़कर के तथा संयम और वेष का परित्याग करके चला जाए और बाद में पुनः दीक्षित हो जाए तो उसे उक्त कारण से तीन वर्ष पर्यन्त आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy