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तीसरा उद्देशक]
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अतः सामान्य भिक्षु या कोई पदवीधर ब्रह्मचर्य पालन करने में अपने आपको असमर्थ माने तो उन्हें आचा. श्रु. १ अ. ५ उ. ४ में कही गई क्रमिक साधना करनी चाहिये या आचा. श्रु. १ अ. ८ उ. ४ के अनुसार आचरण करना चाहिए। किन्तु संयमी जीवन में मैथुनसेवन करके स्वयं का एवं जिनशासन का अहित नहीं करना चाहिये।
आचारांगसूत्र में कथित उत्कट आराधना यदि किसी से संभव न हो एवं तीव्र मोहोदय उपशांत न हो तो भी संयमी जीवन को कलंकित करके जिनशासन की अवहेलना करना सर्वथा अनुचित है। उसकी अपेक्षा संयम त्यागकर मर्यादित गृहस्थजीवन में धर्म-आराधना करना श्रेयस्कर है।
ऐसा भी संभव न हो तो अन्य विधि जो भाष्य में कही गई है वह गीतार्थों के जानने योग्य है एवं आवश्यक होने पर कभी गीतार्थों की निश्रा से अन्य साधु-साध्वियों के भी जानने योग्य एवं परिस्थितिवश आचरण करने योग्य हो सकती है।
प्रस्तुत सूत्र में आए उद्दिसित्तए और धारित्तए, इन दो पदों का आशय यह है कि अब्रह्मसेवी भिक्षु को पद पर नियुक्त नहीं करना चाहिए और यदि जानकारी के अभाव में कोई उसको पद पर नियुक्त कर भी दे तो उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए।
सूत्र में मैथुन के संकल्पों से निवृत्त भिक्षु के लिए अनेक विशेषणों का प्रयोग किया गया है। टीकाकार ने उनके अर्थ में कुछ अन्तर बताते हुए व्याख्या की है। यथा
स्थित-स्थित परिणाम वाले उपशांत-मैथुनप्रवृत्ति से निवृत्त उपरत-मैथुन के संकल्पों से निवृत्त प्रतिविरत-मैथुन सेवन से सर्वथा विरक्त
निर्विकारी-पूर्ण रूप से विकाररहित, शुद्ध ब्रह्मचर्य पालने वाला। -व्यव. भाष्य टीका। संयम त्यागकर जाने वाले को पद के विधि-निषेध
१८.भिक्खूय गणाओ अवक्कम्म ओहाएज्जा, तिणि संवच्छराणि तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उहिसित्तए वा धारेत्तए वा।।
तिहिं संवच्छरेहिं वीइक्कंतेहिं चउत्थगंसि संवच्छरंसि पट्ठियंसि ठियस्स, उवसंतस्स, उवरयस्स, पडिविरयस्स, निव्विगारस्स एवं से कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा।
१९. गणावच्छेइए य गणावच्छेइयत्तं अनिक्खिवित्ता ओहाएज्जा, जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा।
२०. गणावच्छेइए य गणावच्छेइयत्तं निक्खिवित्ता ओहाएज्जा, तिण्णि संवच्छराणि तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उदिसित्तए वा धारेत्तए वा।