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________________ २९८] [व्यवहारसूत्र यदि वह कहे कि-'मैं प्रतिसेवी हूं।' तो वह प्रायश्चित्त का पात्र होता है। यदि वह कहे कि 'मैं प्रतिसेवी नहीं हूं।' तो वह प्रायश्चित्त का पात्र नहीं होता है और जो वह प्रमाण देवे उनसे निर्णय करना चाहिए। प्र०-हे भगवन् ! ऐसा कहने का क्या कारण है? उ०-सत्य प्रतिज्ञा वाले भिक्षुओं के सत्य कथन पर व्यवहार (प्रायश्चित्त) निर्भर होता है। विवेचन-प्रथम उद्देशक के ३२वें सूत्र में संयम का परित्याग करके गृहस्थ बन जाने वाले भिक्षु के पुनः गण में आकर दीक्षित होने का कथन है और इस सूत्र में संयम त्यागने के संकल्प से अन्यत्र जाकर विचारों में परिवर्तन आ जाने से पुनः लौट कर आने वाले भिक्षु का कथन है। वह चलचित्त भिक्षु पुनः उसी दिन आ सकता है, एक दो रात्रि व्यतीत करके भी आ सकता है और अनेक दिनों के बाद भी लौटकर आ सकता है। ___ लौटकर आने वाला भिक्षु अपने विचार-परिवर्तन का एवं उनके कारणों का स्पष्टीकरण करता हुआ गच्छ में रहना चाहे तो उस समय यदि गच्छ के गीतार्थ स्थविरों के विचारों में एकरूपता न हो अर्थात् किसी को यह सन्देह हो कि यह इस अवधि में किसी न किसी दोष का सेवन करके आया होगा, उस समय गच्छप्रमुख उस भिक्षु को पूछे या अन्य किसी से जानकारी करके निर्णय करे। यदि प्रामाणिक जानकारी न मिले तो उस भिक्षु के उत्तर के अनुसार ही निर्णय करना चाहिए अर्थात् वह दोषसेवन करना स्वीकार करे तो उसे उसका प्रायश्चित्त देवे। यदि वह दोष स्वीकार न करे तो किसी के सन्देह करने मात्र से उसे प्रायश्चित्त न दे। किन्तु संयम त्यागने के संकल्प का एवं उस संकल्प से अन्यत्र जाने का उसे यथोचित प्रायश्चित्त दिया जा सकता है एवं उसे गच्छ में सम्मिलित किया जा सकता है। ___ संयम छोड़ने के संकल्प न करने का वर्णन और संयम छोड़ने के कारणों का वर्णन तथा पुनः गण में आने पर परीक्षण करने का वर्णन प्रथम उद्देशक के ३२वें सूत्र के विवेचन में देखें। __यहां भाष्यकार ने संयम छोड़ने के संकल्प के कुछ विशेष कारण कहे हैं, जिनका सम्बन्ध पूर्व सूत्र २३ से किया है तथा विचारों के पुनः परिवर्तन होने के भी कुछ कारण कहे हैं। संयम त्यागने के कारण १. असत्य आक्षेप लगाने वाला स्वयं ही दण्डित हो जाने से खिन्न होकर संयम छोड़ने का संकल्प कर सकता है। ___२. सत्य कहने वाला कभी अपने कथन को प्रमाणित नहीं कर पाता है, तब अन्याय से उद्विग्न होकर संयम त्यागने का संकल्प कर सकता है। ३. कोई साधु दोष-सेवन कर छिपाना चाहता हो किन्तु दूसरे के द्वारा प्रकट कर देने से एवं प्रमाणित कर देने से लज्जित होकर वह संयम त्यागने का संकल्प कर सकता है। ४. किसी के छल-छयों से भी गीतार्थों द्वारा यदि गलत निर्णय हो जाए, जिससे असन्तुष्ट होकर कोई संयम त्यागने का संकल्प कर सकता है।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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