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दूसरा उद्देशक]
[२९७ दोष को स्वीकार कर ले तभी उसे प्रायश्चित्त दिया जाता है। कदाचित् दोष प्रमाणित होने पर भी सम्बन्धित भिक्षु उसे स्वीकार न करे तो प्रायश्चित्तदाता गच्छ के अन्य गीतार्थ भिक्षुओं की सलाह लेकर उसका प्रायश्चित्त घोषित कर सकते हैं एवं प्रायश्चित्त को अस्वीकार करने पर उसे गच्छ से अलग भी कर सकते हैं।
___ असत्य आक्षेप लगाने वाले को वही प्रायश्चित्त देने का कथन बृहत्कल्प उद्देशक ६ में है तथा गीतार्थ या आचार्य प्रदत्त आगमोक्त प्रायश्चित्त के स्वीकार न करने वाले को गच्छ से अलग करने का कथन बृहत्कल्प उद्देशक ४ में है।
तात्पर्य यह है कि गच्छप्रमुख केवल एक पक्ष के कथन से निर्णय एवं व्यवहार न करे, किन्तु उभय पक्ष के कथन को सुनकर उचित निर्णय करके प्रायश्चित्त दे।
संदिग्धावस्था में अथवा सम्यक् प्रकार से निर्णय न होने पर दोषी व्यक्ति को प्रायश्चित्त नहीं देना चाहिए। ऐसा करने में प्रायश्चित्तदाता को कोई दोष नहीं लगता है, किन्तु दोषी व्यक्ति स्वयं ही अपनी संयमविराधना के फल को प्राप्त कर लेता है।
दोषसेवन प्रमाणों से सिद्ध हो जाए एवं स्पष्ट निर्णय हो जाए तो दोषी के अस्वीकार करने पर भी प्रायश्चित्त देना अनिवार्य हो जाता है, अन्यथा गच्छ में अव्यवस्था फैल जाती है और लोकनिन्दा भी होती है। अतः गीतार्थ भिक्षुओं को एवं गच्छप्रमुखों को विवेकपूर्वक सूत्रोक्त प्रायश्चित्त देने का निर्णय करना चाहिए। संयम त्यागने का संकल्प एवं पुनरागमन
२४. भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म ओहाणुप्पेही वजेज्जा, से य अणोहाइए इच्छेज्जा दोच्चं पितमेव गणंउवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, तत्थणंथेराणं इमेयारूवे विवाए समुप्पज्जित्था
'इमं भो! जाणह किं पडिसेवी, अपडिसेवी?' से य पुच्छियव्वे-'किं पडिसेवी, अपडिसेवी?'
से य वएज्जा-'पडिसेवी' परिहारपत्ते।से य वएज्जा-'नो पडिसेवी' नो परिहारपत्ते। जं से पमाणं वयइ से पमाणाओ घेयव्वे।
प०-से किमाहु भंते? उ०-सच्चपइन्ना ववहारा।
२४. संयम त्यागने की इच्छा से यदि कोई साधु गण से निकलकर जाए और बाद में असंयम सेवन किए विना ही वह आये और पुनः अपने गण में सम्मिलित होना चाहे तो (गण में लेने के सम्बन्ध में) स्थविरों में यदि विवाद उत्पन्न हो जाए (वे परस्पर कहने लगे कि)
क्या तुम जानते हो-यह प्रतिसेवी है या अप्रतिसेवी? (ऐसी स्थिति में आगम का विधान है कि स्थविरों को) उस भिक्षु से ही पूछना चाहिएक्या तुम प्रतिसेवी हो या अप्रतिसेवी?