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________________ प्रथम उद्देशक] [२८१ सूत्रोक्त 'भिक्षु प्रतिमा' नहीं है, किंतु शब्दप्रयोग करने की यह विशिष्ट आगम-शैली है, ऐसा समझना चाहिए। विशेष जानकारी के लिए सूत्र २३ का विवेचन देखें। संयम छोड़कर जाने वाले का गण में पुनरागमन ३२. भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म ओहावेज्जा, से य इच्छेज्जा दोच्चं पि तमेव गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, नत्थि णं तस्स तप्पत्तियं केई छेए वा परिहारे वा, नन्नत्थ एगाए छेओवट्ठावणियाए। ३२. यदि कोई भिक्षु गण से निकलकर संयम का त्याग कर दे और बाद में वह उसी गण को स्वीकार कर रहना चाहे तो उसके लिए केवल 'छेदोपस्थापना' (नई दीक्षा) प्रायश्चित्त है, इसके अतिरिक्त उसे दीक्षाछेद या परिहार तप आदि कोई प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता है। विवेचन-यदि कोई भिक्षु संयम-मर्यादाओं तथा परीषह-उपसर्गों से घबराकर इन्द्रियविषयों की अभिलाषा से अथवा कषायों के वशीभूत होकर संयम का त्याग कर देता है एवं गृहस्थलिंग धारण कर लेता है, वही कभी पुनः संयम स्वीकार करना चाहे और उसे दीक्षा देना लाभप्रद प्रतीत हो तो उसे पुनः दीक्षा दी जा सकती है। किन्तु उसे गच्छ एवं संयम त्यागने संबंधी प्रवृत्ति का कोई प्रायश्चित्त नहीं दिया गया है। क्योंकि पुनः नई दीक्षा देने से ही उसका पूर्ण प्रायश्चित्त हो जाता है। ___ दशवैकालिकसूत्र की प्रथम चूलिका में संयम में अस्थिर चित्त को पुनः स्थिर करने के लिए अठारह स्थानों द्वारा विस्तृत एवं हृदयद्रावक वर्णन किया गया है। अन्त में कहा गया है कि संयम में उत्पन्न यह दुःख क्षणिक है और असंख्य वर्षों के नरक के दुःखों से नगण्य है तथा संयम में रमण करने वाले के लिए, वह दुःख भी महान् सुखकारी हो जाता है। इसलिए संयम में रमण करना चाहिए। इन्द्रियविषयों के सुख भी शाश्वत रहने वाले नहीं होते, किन्तु वे सुख तो दुःख की परम्परा को बढ़ाने वाले ही होते हैं। अतः साधक को ऐसा दृढ निश्चय करना चाहिए कि 'चइज्ज देहं न हु धम्मसासणं' अर्थात् शरीर का सम्पूर्ण त्याग करना पड़ जाय तो भी धर्म-शासन अर्थात् संयम का त्याग कदापि नहीं करूंगा। संयम त्यागने वाले या संयम में रमण नहीं करने वाले भिक्षु भविष्य में अत्यन्त पश्चात्ताप को प्राप्त होते हैं। अन्य आगमों में भी संयम में स्थिर रहने का एवं किसी भी परिस्थिति में त्याग किये गृहवास एवं विषयों को पुनः स्वीकार नहीं करने का उपदेश दिया गया है। अतः संयमसाधनाकाल में विषय-कषायवश या असहिष्णुता आदि कारणों से संयम छोड़ने का संकल्प उत्पन्न हो जाय तो उन्हें आगमों के अनेक उपदेश-वाक्यों द्वारा तत्काल निष्फल कर देना चाहिए।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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