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[व्यवहारसूत्र भाष्य में बताया गया है कि कई पार्श्वस्थादि आत्मनिन्दा एवं सुसाधुओं की प्रशंसा करते हुए विचरण करते हैं, कई पार्श्वस्थादि क्षेत्र-काल की ओट लेकर अपने शिथिलाचार का बचाव करते हैं एवं विद्या, मन्त्र, निमित्त आदि से अपनी प्रतिष्ठा बनाते हैं और सुसाधुओं की निन्दा भी करते हैं।
पार्श्वस्थ आदि महाविदेहक्षेत्र में भी होते हैं एवं सभी तीर्थंकरों के शासन में भी होते हैं।
इन पार्श्वस्थ आदि में भी यथाछन्द साधु अपना और जिनशासन का अत्यधिक अहित करने वाला होता है। ... ये सभी पार्श्वस्थादि अनुकम्पा के योग्य हैं तथा सद्बुद्धि आने पर यदि ये सुविहित गण में आना चाहें तो उनकी योग्यता का निर्णय करके इन्हें गच्छ में सम्मिलित किया जा सकता है, यह इन सूत्रों का आशय समझना चाहिए। अन्यलिंगग्रहण के बाद गण में पुनरागमन
३१. भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म परपासंडपडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरेज्जा, से य इच्छेज्जा दोच्चं पि तमेव गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, नत्थि णं तस्स तप्पत्तियं केइ छए वा परिहारे वा, नन्नत्थ एगाए आलोयणाए।
____३१. यदि कोई भिक्षु गण से निकलकर किसी विशेष परिस्थिति से अन्य लिंग को धारण करके विहार करे और कारण समाप्त होने पर पुनः स्वलिंग को धारण करके गण में सम्मिलित होकर रहना चाहे तो उसे लिंगपरिवर्तन की आलोचना के अतिरिक्त दीक्षाछेद या तप रूप कोई प्रायश्चित्त नहीं आता है।
विवेचन-यदि कोई भिक्षु कषायवश गण को छोड़कर अन्यलिंग धारण करता है एवं कालान्तर में पुनः स्वगच्छ में आना चाहता है तो उसे दीक्षाछेद या मूल दीक्षा आदि प्रायश्चित्त देकर ही गच्छ में सम्मिलित किया जा सकता है।
किन्तु प्रस्तुत सूत्र में जो दीक्षाछेद आदि प्रायश्चित्त का निषेध किया गया है, उसका आशय यह है
__ असह्य उपद्रवों से उद्विग्न होकर कोई भिक्षु भावसंयम की रक्षा के लिए द्रव्यलिंग का परिवर्तन करता है अथवा किसी देश का राजा आहेतधर्म से एवं निर्ग्रन्थ श्रमणों से द्वेष रखता है, उस क्षेत्र में किसी भिक्षु को जितने समय रहना हो या उस क्षेत्र को विहार करके पार करना हो, तब वह लिंगपरिवर्तन करता है। बाद में पुनः स्वलिंग को धारण कर गच्छ के साधुओं के साथ रहना चाहता है तब उसे लिंगपरिवर्तन के लिए केवल आलोचना प्रायश्चित्त के सिवाय कोई छेद या तप प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता है।
भगवती सूत्र श. २५ उ. ७ में गृहस्थलिंग एवं अन्यलिंग में छेदोपस्थापनीयचारित्र का जो कथन है, वह भी इसी अपेक्षा से है।
यहां सूत्र में 'परपासंड' शब्द के साथ 'पडिमं' शब्द का प्रयोग किया गया है फिर भी यह