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प्रथम उद्देशक]
[२७९ ५. संसक्त-उन्नत आचार वालों के साथ उन्नत आचार का पालन करता है और शिथिलाचार वालों के साथ शिथिलाचारी हो जाता है, वह 'संसक्त' कहा जाता है।
संयम में दोष लगाने के कारण ये पार्श्वस्थ आदि शिथिलाचारी कहे जाते हैं। किन्तु भगवती सूत्र श. २५ उ. ६ में बकुश और प्रतिसेवनाकुशील निर्ग्रन्थ का वर्णन है। वे दोष का सेवन करते हुए भी निर्ग्रन्थ कहे जाते हैं। इसका कारण यह है
१. जो भिक्षु अनिवार्य परिस्थिति के बिना दोष सेवन करता है। २. अनिवार्य परिस्थिति में दोष सेवन करके शुद्धि नहीं करता है।
३. संयम की मर्यादाओं से विपरीत आचरणों को सदा के लिए स्वीकार कर लेता है, वह 'शिथिलाचारी पार्श्वस्थादि' कहा जाता है।
__ जो भिक्षु किसी अनिवार्य परिस्थिति से विवश होकर दोष सेवन करता है, बाद में प्रायश्चित्त लेकर दोषों की शुद्धि कर लेता है। विशेष परिस्थिति से निवृत्त होने पर सदोष प्रवृत्तियों का परित्याग कर देता है, वह 'शिथिलाचारी पार्श्वस्थादि' नहीं कहा जाता है किन्तु बकुश या प्रतिसेवना निर्ग्रन्थ एवं शुद्धाचारी कहा जाता है।
शुद्धाचारी एवं शिथिलाचारी का निर्णय करने में एक विकल्प यह भी ध्यान में रखने योग्य है कि संयम की जिन मर्यादाओं का आगमों में स्पष्ट कथन है, उनका जो अकारण पालन नहीं करता है उसे तो शिथिलाचारी कहा जा सकता है, किन्तु आगमों में जिन मर्यादाओं का कथन नहीं है, जो परम्परा से प्रचलित हैं या गच्छ समुदाय या व्यक्ति के द्वारा निर्धारित एवं आचरित हैं, ऐसी समाचारी के न पालने से किसी को शिथिलाचारी मानना सर्वथा अनुचित है।
जिस समुदाय या गच्छ की जो मर्यादाएं हैं उस गच्छ या समुदाय वालों के लिए अनुशासन हेतु उनका पालन करना आवश्यक है। क्योंकि अपने गच्छ की मर्यादा का पालन न करने वाला गच्छसमाचारी एवं गुरु आज्ञा का भंग करने वाला होता है। किन्तु उस गच्छ से भिन्न गच्छ वाले साधु साध्वी को उन नियमों के पालन करने पर शिथिलाचारी या गुरु आज्ञा का भंग करने वाला नहीं कहा जा सकता। ऐसी सामाचारिक मर्यादाओं की एक सूची निशीथ उ. १३ में दी गई है। जिज्ञासु पाठक उसे ध्यान से देखें।
पार्श्वस्थ आदि के इन पांच सूत्रों का क्रम निशीथसूत्र उद्देशक ४ एवं उद्देशक १३ के मूल पाठ एवं भाष्य में इस प्रकार है
१. पार्श्वस्थ २. अवसन्न ३. कुशील ४. संसक्त ५. नित्यक। किन्तु प्रस्तुत सूत्र एवं उसके भाष्य में क्रम इस प्रकार है
१. पार्श्वस्थ २. यथाछंद ३. कुशील ४. अवसन्न ५. संसक्त।
यह क्रमभेद मौलिक रचना से है या कालक्रम से है या लिपिदोष से है, यह ज्ञात नहीं हो सका है। भाष्य में भी इस विषय में कोई विचार नहीं किया गया है।