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[ व्यवहारसूत्र
इन सूत्रों में प्रायश्चित्त के लिए तप या छेद का वैकल्पिक विधान किया गया है अर्थात् किसी एकलविहारी या पार्श्वस्थ आदि को तप प्रायश्चित्त देकर गच्छ में सम्मिलित किया जा सकता है और किसी को दीक्षाछेद का प्रायश्चित्त भी दिया जा सकता है, अतः एकान्त विधान नहीं समझना चाहिए। किसी भी साधु को पुनः गच्छ में सम्मिलित करने के लिए उसके संयम की परीक्षा करना एवं जानकारी करना अत्यन्त आवश्यक होता है, चाहे वह शुद्ध आचार वाला हो अथवा शिथिल - आचार वाला हो ।
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१. स्वतंत्र रहने वाला भिक्षु गच्छ के आचार-विचार एवं विनय- अनुशासन में रह सकेगा या नहीं, यह देखना अत्यंत आवश्यक है।
२. वह पार्श्वस्थविहार आदि छोड़कर पुनः गच्छ में क्यों आना चाहता है – विशुद्ध परिणामों से या संक्लिष्ट परिणामों से ?
३. परीषह-उपसर्ग एवं अपमान आदि से घबराकर आना चाहता है ?
४. भविष्य के लिए उसके अब क्या कैसे परिणाम हैं ?
५. उसके गच्छ में रहने के परिणाम स्थिर हैं या नहीं ?
इत्यादि विचारणाओं के बाद उसका एवं गच्छ का जिसमें हित हो, ऐसा निर्णय लेना चाहिए। सही निर्णय करने के लिए उस भिक्षु को कुछ समय तक या उत्कृष्ट छह महीने तक गच्छ में सम्मिलित न करके परीक्षार्थ रखा जा सकता है, जिससे उसे रखने या न रखने का सही निर्णय हो सके। इन विचारणाओं का कारण यह है कि वह भिक्षु गच्छ का या गच्छ के अन्य साधु-साध्वियों
का अथवा संघ का कुछ भी अहित कर बैठे, बात-बात में कलह करे, गच्छ या गच्छप्रमुखों की निंदा करे या पुनः गच्छ को छोड़ दे, अन्य साधुओं को भी भ्रमित कर गच्छ छुड़ा दे, इत्यादि परिणामों से उसकी या गच्छ की एवं जिनशासन की हीलना होती है।
अतः सभी विषयों का पूर्वापर विचार करके ही आगंतुक भिक्षु को रखना चाहिए। अन्य गच्छ hi भिक्षु के लिए भी ऐसी ही सावधानियां रखना आवश्यक समझ लेना चाहिए।
पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील और संसक्त- इन चारों का विस्तृत विवेचन निशीथ उ. ४ में देखें । यथाछंद का विस्तृत विवेचन निशीथ उ. १० में देखें । संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है
१. पार्श्वस्थ - जो ज्ञान दर्शन चारित्र की आराधना में पुरुषार्थ नहीं करता अपितु उनके अतिचारों एवं अनाचारों में प्रवृत्ति करता है, वह 'पार्श्वस्थ' कहा जाता है।
२. यथाछंद - जो आगमविपरीत मनमाना प्ररूपण या आचरण करता है, वह यथाछंद कहा
जाता है।
३. कुशील - जो विद्या, मंत्र, निमित्त - कथन या चिकित्सा आदि संयमी जीवन के निषिद्ध कार्य करता है, वह 'कुशील' कहा जाता है।
४. अवसन्न - जो संयमसमाचारी के नियमों से विपरीत या अल्पाधिक आचरण करता है, वह ‘अवसन्न' कहा जाता है।