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________________ प्रथम उद्देशक ] [ २७७ ३०. भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म संसत्तविहारपडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरेज्जा, से य इच्छेज्जा दोच्चं पि तमेव गणं उवसंपज्जिताणं विहरित्तए, अत्थि य इत्थ सेसे, पुणो आलोएज्जा, पुणो पडिक्कमेज्जा, पुणो छेयपरिहारस्स उवट्ठाएज्जा । २६. यदि कोई भिक्षु गण से निकलकर पार्श्वस्थविहारचर्या को अंगीकार करके विचरे और बाद में वह पार्श्वस्थविहार छोड़कर उसी गण में सम्मिलित होकर रहना चाहे तो यदि उसका चारित्र कुछ शेष हो तो पूर्व अवस्था की पूर्ण आलोचना एवं प्रतिक्रमण करे तथा आचार्य उसकी आलोचना सुनकर जो भी दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्त दें, उसे स्वीकार करे । २७. यदि कोई भिक्षु गण से निकलकर यथाछन्दविहारचर्या अंगीकार करके विचरे और बाद में वह यथाछन्दविहार छोड़कर उसी गण में सम्मिलित होकर रहना चाहे तो यदि उसका चारित्र कुछ शेष हो तो वह उस पूर्व अवस्था की पूर्ण आलोचना एवं प्रतिक्रमण करे तथा आचार्य उसकी आलोचना सुनकर जो भी दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्त दें, उसे स्वीकार करे । २८. यदि कोई भिक्षु गण से निकलकर कुशीलविहारचर्या को अंगीकार करके विचरे और बाद में वह कुशीलविहार छोड़कर उसी गण में सम्मिलित होकर रहना चाहे तो यदि उसका चारित्र कुछ शेष हो तो वह उस पूर्व अवस्था की पूर्ण आलोचना एवं प्रतिक्रमण करे तथा आचार्य उसकी आलोचना सुनकर जो भी दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्त दें, उसे स्वीकार करे । २९. यदि कोई भिक्षुगण से निकलकर अवसन्नविहारचर्या को अंगीकार करके विचरे और बाद में वह अवसन्नविहार छोड़कर उसी गण में सम्मिलित होकर रहना चाहे तो यदि उसका चारित्र कुछ शेष हो तो वह उस पूर्व अवस्था की पूर्ण आलोचना एवं प्रतिक्रमण करे तथा आचार्य उसकी आलोचना सुनकर जो भी दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्त दें, उसे स्वीकार करे । ३०. यदि कोई भिक्षु गण से निकलकर संसक्तविहारचर्या को अंगीकार करके विचरे और बाद में वह संसक्तविहार को छोड़कर उसी गण में सम्मिलित होकर रहना चाहे तो यदि उसका चारित्र कुछ शेष हो तो वह उस पूर्व अवस्था की पूर्ण आलोचना एवं प्रतिक्रमण करे तथा आचार्य उसकी आलोचना सुनकर जो भी दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्त दें, उसे स्वीकार करे । विवेचन - पूर्व के सूत्रों में एकलविहारी भिक्षु के पुनः गच्छ में आने का कथन है और इन सूत्रों में शिथिल आचार वाले पार्श्वस्थ आदि भिक्षुओं का पुनः गच्छ में आने का कथन है। इन सूत्रों से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि पूर्वसूत्रों में वर्णित एकलविहार वाले संयम में शिथिल नहीं हैं, किन्तु शुद्ध आचार का पालन करने वाले हैं। पार्श्वस्थ आदि जब पुनः गच्छ में आना चाहें तब उनकी दूषित प्रवृत्तियों के द्वारा संयमपूर्ण नष्ट न हुआ हो अर्थात् कुछ भी संयम के गुण शेष रहे हों तो उन्हें तप या छेद का प्रायश्चित्त देकर गच्छ में सम्मिलित किया जा सकता है। यह संयम शेष रहने का कथन पूर्वसूत्रों में नहीं है, अन्य सभी विधान दोनों जगह समान हैं। अतः इनका विवेचन पूर्ववत् समझना चाहिए।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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