SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यदि उन्हें कोई सामान्य दोष सेवन करते हुये देखता है तो वे कहते हैं-'सामान्य दोष तो इस पंचमकाल में सभी को लगते हैं। अतः इन दोषों से बचना असम्भव है।' चतुर्थ भंग वाले-श्रमण-श्रमणियाँ सच्चे वैराग्य वाले होते हैं, मुमुक्षु और स्वाध्यायशील भी होते हैं अतः वे उक्त दोषों का सेवन न प्रकट करते हैं, न प्रच्छन्न करते हैं। प्रथम तीन भंग वाले श्रमण-श्रमणियों द्वारा सेवित दोषों की शुद्धि के लिए ही व्यवहारसूत्र निर्दिष्ट प्रायश्चित्त-विधान है। अंतिम चतुर्थ भंग वाले श्रमण-श्रमणियाँ निरतिचार चारित्र के पालक होते हैं अत: उनके लिए किसी भी प्रकार के प्रायश्चित्त का विधान नहीं है। व्यवहारशुद्धि कठिन भी, सरल भी प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव आदिनाथ के धर्मशासन में श्रमण-श्रमणियाँ प्रायः ऋजु-सरल होते थे पर जड (अल्पबौद्धिक विकास वाले) होते थे। अतः वे सूत्र सिद्धान्त निर्दिष्ट समाचारी का परिपूर्ण ज्ञान तथा परिपूर्ण पालन नहीं कर पाते थे। उनकी व्यवहारशुद्धि दुःसाध्य होने का एक मात्र यही कारण था। बावीस तीर्थंकरों (भगवान् अजितनाथ से भ० पार्श्वनाथ पर्यन्त) के श्रमण-श्रमणी प्रायः ऋजु-प्राज्ञ (सरल और प्रबुद्ध ) होते थे। वे सूत्र सिद्धान्त प्रतिपादित समाचारी का परिपूर्ण ज्ञान तथा परिपूर्ण पालन करने में सदा प्रयत्नशील रहते थे अत: उनकी व्यवहारशुद्धि अति सरल थी। अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर की परम्परा के श्रमण-श्रमणी प्रायः वक्रजड हैं। दशा, कल्प, व्यवहार आदि में विशद श्रुत समाचारी के होते हुये भी प्रत्येक गच्छ भिन्न-भिन्न समाचारी की प्ररूपणा करता है। पर्युषणपर्व तथा संवत्सरी पर्व जैसे महान् धार्मिक पर्यों की आराधना, पक्खी, चौमासी आलोचना भी विभिन्न दिनों में की जाती है। वक्रता और जडता के कारण मूलगुण तथा उत्तरगुणों में लगने वाले अतिचारों की आलोचना भी वे सरल हृदय से नहीं करते अत: उनकी व्यवहार शुद्धि अति कठिन है।' आलोचना और आलोचक आलोचना-अज्ञान, अहंकार, प्रमाद या परिस्थितिवश जो उत्सर्ग मार्ग से स्खलन अर्थात् अतिचार होता है-उसे गुरु के समक्ष प्रकट करना आलोचना है और आलोचक वह है जो पूर्वोक्त कारणों से लगे हुये अतिचारों को गुरु के समक्ष प्रकट करता है। यदि आलोचक मायावी हो और मायापूर्वक आलोचना करता हो तो उसकी आलोचना का उसे अच्छा फल नहीं मिलता है। यदि आलोचक मायावी नहीं है और मायारहित आलोचना करता है तो उसकी आलोचना का उसे अच्छा फल मिलता है। व्यवहारशुद्धि के लिये तथा निश्चय (आत्म) शुद्धि के लिये लगे हुये अतिचारों की आलोचना करना अनिवार्य है किन्तु साधकों के विभिन्न वर्ग हैं। उनमें एक वर्ग ऐसा है जो अतिचारों की आलोचना करता ही नहीं है। उनका कहना है-हमने अतिचार (अकृत्य) सेवन किये हैं, करते हैं और करते रहेंगे। क्योंकि १. गाहा-पुरिमाणं दुव्विसोज्झो उ, चरिमाणं दुरणुपालओ। कप्पो मज्झिमगाणं तु, सुविसोज्झो सुपालओ॥ -उत्त. अ. २३, गाथा-२७ ३२
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy