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________________ ३. बहुमानातिचार-श्रुत और गुरु का सन्मान न करना। ४. उपधानातिचार-श्रुत की वाचना लेते समय आचाम्लादि तप न करना। ५. निह्नवनाभिधानातिचार-गुरु का नाम छिपाना। ६. व्यंजनातिचार-हीनाधिक अक्षरों का उच्चारण करना। ७. अर्थातिचार-प्रसंग संगत अर्थ न करना। अर्थात् विपरीत अर्थ करना। ८. उभयातिचार-ह्रस्व की जगह दीर्घ उच्चारण करना, दीर्घ की जगह ह्रस्व उच्चारण करना। उदात्त के स्थान में अनुदात्त का और अनुदात्त के स्थान में उदात्त का उच्चारण करना। अतिक्रम, व्यतिक्रम और अतिचार ये तीन संज्वलन कषाय के उदय से होते हैं। इनकी शुद्धि उनकी आलोचनाह से लेकर तपोऽर्हपर्यन्त प्रायश्चित्तों से होती है। छेद, मूल, अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त योग्य अतिचार और अनाचार शेष बारह कषायों (अनन्तानुबन्धी ४, अप्रत्याख्यानी ४, प्रत्याख्यानी ४) के उदय से होते हैं। प्रकट और प्रच्छन्न दोष सेवन अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार-इन चार प्रकार के दोषों का सेवन करने वाले श्रमण श्रमणियां चार प्रकार के हैं १. कुछ श्रमण-श्रमणियाँ इन उक्त दोषों का सेवन प्रकट करते हैं अर्थात् प्रच्छन्न नहीं करते हैं। २. कुछ श्रमण-श्रमणियाँ इन उक्त दोषों का सेवन प्रच्छन्न करते हैं अर्थात् प्रकट नहीं करते हैं। ३. कुछ श्रमण-श्रमणियाँ इन उक्त दोषों का सेवन प्रकट भी करते हैं और प्रच्छन्न भी करते हैं। ४. कुछ श्रमण-श्रमणियाँ इन उक्त दोषों का सेवन न प्रकट करते हैं और न प्रच्छन्न करते हैं। प्रथम भंग वाले-श्रमण-श्रमणियाँ अनुशासन में नहीं रहने वाले अविनीत, स्वच्छन्द, प्रपंची एवं निर्लज्ज होते हैं और वे पापभीरु नहीं होते हैं अतः दोषों का सेवन प्रकट करते हैं। द्वितीय भंग वाले-श्रमण-श्रमणियाँ दो प्रकार के होते हैं-अतः दोष का सेवन प्रकट करते हैं। यथा प्रशस्त भावना वाले-श्रमण-श्रमणियाँ यदि यदा-कदा उक्त दोषों का सेवन करते हैं तो प्रच्छन्न करते हैं, क्योंकि वे स्वयं परिस्थितिवश आत्मिक दुर्बलता के कारण दोषों का सेवन करते हैं इसलिए ऐसा सोचते हैं कि मुझे दोष-सेवन करते हुये देखकर अन्य श्रमण-श्रमणियाँ दोष-सेवन न करें, अतः वे दोषों का सेवन प्रच्छन्न करते हैं। अप्रशस्त भावना वाले–मायावी श्रमण-श्रमणियाँ लोक-लज्जा के भय से या श्रद्धालुजनों की श्रद्धा मेरे पर बनी रहे इस संकल्प से उक्त दोषों का सेवन प्रकट नहीं करते हैं अपितु छिपकर करते हैं। तृतीय भंग वाले-श्रमण-श्रमणियाँ वंचक प्रकृति के होते हैं वे सामान्य दोषों का सेवन तो प्रकट करते हैं किन्तु सशक्त (प्रबल) दोषों का सेवन प्रच्छन्न करते हैं। -अभि० कोष–'अइयार' शब्द। १. सव्वे वि अइयारा संजलणाणं उदयओ होंति॥ २. ठाणं-४, उ. १, सू. २७२
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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