SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इसी प्रकार ज्ञान का व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार हैं। दर्शन और चारित्र के भी तीन-तीन भेद हैं। ज्ञान का अतिक्रम तीन प्रकार का है १. जघन्य, २. मध्यम, ३. उत्कृष्ट । इसी प्रकार ज्ञान का व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार हैं। दर्शन और चारित्र के भी तीन-तीन भेद हैं। ज्ञानादि का अतिक्रम हो गया हो तो गुरु के समक्ष आलोचना करना, प्रतिक्रमण करना तथा निन्दा, गर्हा आदि करके शुद्धि करना, पुनः दोषसेवन न करने का दृढ़ संकल्प करना तथा प्रायश्चित्त रूप तप करना । इसी प्रकार के ज्ञान के व्यतिक्रमादि तथा दर्शन - चारित्र के अतिक्रमादि की शुद्धि करनी चाहिए । प्रतिसेवना के दस प्रकार १. दर्पप्रतिसेवना - अहंकारपूर्वक अकृत्य सेवन । २. प्रमादप्रतिसेवना - निद्रादि पाँच प्रकार के प्रमादवश अकृत्य सेवन । ३. अनाभोग प्रतिसेवना—विस्मृतिपूर्वक अनिच्छा से अकृत्य सेवन । ४. आतुरप्रतिसेवना - रुग्णावस्था में अकृत्य सेवन । ५. आपत्ति प्रतिसेवना - दुर्भिक्षादि कारणों से अकृत्य सेवन । ६. शंकित प्रतिसेवना - आशंका से अकृत्य सेवन । ७. सहसाकार प्रतिसेवना - अकस्मात् या बलात्कार से अकृत्य सेवन । ८. भयप्रतिसेवना - भय से अकृत्य सेवन । ९. प्रद्वेषप्रतिसेवना - द्वेषभाव से अकृत्य सेवन । १०. विमर्शप्रतिसेवना - शिष्य की परीक्षा के निमित्त अकृत्य सेवन । ये प्रतिसेवनायें संक्षेप में दो प्रकार की हैं- दर्पिका और कल्पिका । राग-द्वेषपूर्वक जो अकृत्य सेवन किया जाता है वह दर्पिका प्रतिसेवना है। इस प्रतिसेवना से प्रतिसेवक विराधक होता है। राग-द्वेष रहित परिणामों से जो प्रतिसेवना हो जाती है या की जाती है वह कल्पिका प्रतिसेवना है। इसका प्रतिसेवक आराधक होता है। २ आठ प्रकार के ज्ञानातिचार १. कालातिचार - अकाल में स्वाध्याय करना । २. विनयातिचारर - श्रुत का अध्ययन करते समय जाति और कुछ मद से गुरु का विनय न करना । १. (क) ठाणं ३ उ० ४ सू० १९५ (ख) अस्वाध्यायकाल में स्वाध्याय करने का संकल्प करना ज्ञान का अतिक्रम है। पुस्तक लेने जाना ज्ञान का व्यतिक्रम है। स्वाध्याय प्रारम्भ करना ज्ञान का अतिचार है। पूर्ण स्वाध्याय करना ज्ञान का अनाचार है। इसी प्रकार दर्शन तथा चारित्र के अतिक्रमादि समझने चाहिए। २. गाहा - रागद्दोसाणुगया, तु दुप्पिया कप्पिया तु तदभावा । आराधणा उ कप्पे, विराधणा होति दप्पेण ॥ ३० - बृह० उ० ४ भाष्य गाथा ४९४३
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy