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(८) मूलयोग्य-जिन अतिचारों की शुद्धि महाव्रतों के पुनः आरोपण करने से ही हो सकती है, ऐसे अनाचार मूल प्रायश्चित्त के योग्य होते हैं। एक या एक से अधिक महाव्रतों का होने वाला मूल प्रायश्चित्त योग्य है।
(९) अनवस्थाप्ययोग्य-जिन अनाचारों की शुद्धि व्रत एवं वेष रहित करने पर ही हो सकती हैऐसे अनाचार अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त योग्य होते हैं।
(१०) पारांचिक योग्य-जिन अनाचारों की शुद्धि गृहस्थ का वेष धारण कराने पर और बहुत लम्बे समय तक निर्धारित तप का अनुष्ठान कराने पर ही हो सकता है ऐसे अनाचार पारांचिकप्रायश्चित्त योग्य होते हैं। इस प्रायश्चित्त वाला व्यक्ति उपाश्रय, ग्राम और देश से बहिष्कृत किया जाता है। प्रायश्चित्त के प्रमुख कारण
१. अतिक्रम-दोषसेवन का संकल्प। २. व्यतिक्रम-दोषसेवन के साधनों का संग्रह करना। ३. अतिचार-दोषसेवन प्रारम्भ करना। ४ अनाचार-दोषसेवन कर लेना। अतिक्रम के तीन भेद१. ज्ञान का अतिक्रम, २. दर्शन का अतिक्रम, ३. चारित्र का अतिक्रम।
एक बार या अनेक बार पंचेन्द्रिय प्राणियों का वध करने वाला, शील भंग करने वाला, संक्लिष्ट संकल्पपूर्वक मृषावाद बोलने वाला, अदत्तादान करने वाला, परिग्रह रखने वाला, पर-लिंग (परिव्राजकादि का वेष) धारण करने वाला तथा
गृहस्थलिंग धारण करने वाला मूल प्रायश्चित्त योग्य होता है। २. अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त योग्य तीन हैं
१. साधर्मिक की चोरी करने वाला, २. अन्यधर्मियों की चोरी करने वाला,
३. दण्ड, लाठी या मुक्के आदि से प्रहार करने वाला। -ठाणं० ३, उ० ४ सू० २०१ ३. ठाणं०६, सू० ४८९/ ठाणं०८, सू०६०५/ठाणं०९, सू०६८८/ ठाणं०१०, सू०७३३
पारांचिक प्रायश्चित्त योग्य पांच हैं१. जो कुल (गच्छ) में रहकर परस्पर कलह कराता हो, २. जो गण में रहकर परस्पर कलह कराता हो, ३. जो हिंसाप्रेक्षी हो, ४. जो छिद्रप्रेमी हो, ५. प्रश्नशास्त्र का बारम्बार प्रयोग करता हो। -ठाणं ५, उ०१ सू० ३९८ पारांचिक प्रायश्चित्त योग्य तीन हैं१. दुष्ट पारांचिक २. प्रमत्त पारांचिक ३. अन्योऽन्य मैथुनसेवी पारांचिक।' अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त के सम्बन्ध में विशेष जानने के लिये व्यवहारभाष्य देखना चाहिये।
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