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________________ (ख)-व्यक्त अर्थात् स्पष्ट छेद सूत्र निर्दिष्ट प्रायश्चित्त कृत्य। भिन्न भिन्न अतिचारों के भिन्न-भिन्न (आलोचनादि कृत्य) प्रायश्चित्त। (क)-त्यक्त कृत्यप्रायश्चित्त-जो कृत्य त्यक्त हैं उनका प्रायश्चित्त। (ख)-चियत्त-का एक अर्थ 'प्रीतिकर' भी होता है। आचार्य के प्रीतिकर कृत्य वैयावृत्य आदि भी प्रायश्चित्त रूप हैं। दस प्रकार के प्रायश्चित्त (१) आलोचनायोग्य-जिन अतिचारों की शुद्धि आलोचना से हो सकती है ऐसे अतिचारों की आलोचना करना आलोचनायोग्य प्रायश्चित्त है। एषणा समिति और परिष्ठापना समिति के अतिचार प्रायः आलोचना योग्य हैं। (२) प्रतिक्रमणयोग्य-जिन अतिचारों की शुद्धि प्रतिक्रमण से हो सकती है, ऐसे अतिचारों का प्रतिक्रमण करना-प्रतिक्रमण योग्य है। समितियों एवं गुप्तियों के अतिचार प्रायः प्रतिक्रमण योग्य हैं। (३) उभययोग्य-जिन अतिचारों की शुद्धि आलोचना और प्रतिक्रमण-दोनों से ही हो सकती है-ऐसे अतिचारों की आलोचना तथा उनका प्रतिक्रमण करना-उभययोग्य प्रायश्चित्त है। एकेन्द्रियादि जीवों का अभिधान करने से यावत् स्थानान्तरण करने से जो अतिचार होते हैं-वे उभय प्रायश्चित्त योग्य हैं। (४) विवेकयोग्य-जिन अतिचारों की शुद्धि विवेक अर्थात् परित्याग से होती है-ऐसे अतिचारों का परित्याग करना विवेक (त्याग) योग्य प्रायश्चित्त है। आधाकर्म आहार यदि आ जाय तो उसका परित्याग करना ही विवेकयोग्य प्रायश्चित्त है। (५) व्युत्सर्ग योग्य-जिन अतिचारों की शुद्धि कायिक क्रियाओं का अवरोध करके ध्येय में उपयोग स्थिर करने से होती है ऐसे अतिचार व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त योग्य हैं। नदी पार करने के बाद किया जाने वाला कायोत्सर्ग व्युत्सर्ग योग्य प्रायश्चित्त है। (६) तपयोग्य- जिन अतिचारों की शुद्धि तप से ही हो सकती है-ऐसे अतिचार तप प्रायश्चित्त योग्य हैं। निशीथसूत्र निर्दिष्ट अतिचार प्रायः तप (गुरुमास, लघुमास) प्रायश्चित्त योग्य हैं। (७) छेदयोग्य- जिन अतिचारों की शुद्धि दीक्षा छेद से हो सकती है वे अतिचार छेद प्रायश्चित्त योग्य हैं। पाँच महाव्रतों के कतिपय अतिचार छेद प्रायश्चित्त योग्य हैं। १. 'चियत्त' का 'प्रीतिकर' अर्थसूचक संस्कृत रूपान्तर मिलता नहीं है। -अर्धमागधीकोश भाग २ चियत्तशब्द पृ० ६२८ २. अकारण अपवाद मार्ग सेवन में आसक्त, एक अतिचार का अनेक बार आचरणकर्ता, तथा एक साथ अनेक अतिचार सेवनकर्ता छेद प्रायश्चित्त योग्य होता है। जिस प्रकार शेष अंग की रक्षा के लिये व्याधिविकृत अंग का छेदन अत्यावश्यक है- इसी प्रकार शेष व्रत पर्याय की रक्षा के लिये दूषित व्रत पर्याय का छेदन भी अत्यावश्यक है। ०८
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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