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________________ देश, काल और शारीरिक-मानसिक स्थितियाँ ऐसी हैं कि हमारा संयमी जीवन निरतिचार रहे-ऐसा हमें संभव नहीं लगता है अत: आलोचना से क्या लाभ है यह तो हस्तिस्नान जैसी प्रक्रिया है। अतिचार लगे, आलोचना की और फिर अतिचार लगे-यह चक्र चलता ही रहता है। उनका यह चिन्तन अविवेकपूर्ण हैं क्योंकि 'वस्त्र पहने हैं, पहनते हैं और पहनते रहेंगे तो पहने गये वस्त्र मलिन हुये हैं, होते हैं और होते रहेंगे-फिर वस्त्र शुद्धि से क्या लाभ है!'-यह कहना कहाँ तक उचित है? जब तक वस्त्र पहनना है तब तक उन्हें शुद्ध रखना भी एक कर्तव्य है-क्योंकि वस्त्रशुद्धि के भी कई लाभ हैं-प्रतिदिन शद्ध किये जाने वाले वस्त्र अति मलिन नहीं होते हैं और स्वच्छ वस्त्रों से स्वास्थ्य भी समृद्ध रहता है। ___ इसी प्रकार जब तक योगों के व्यापार हैं और कषाय तीव्र या मन्द है तब तक अतिचारजन्य कर्ममल लगना निश्चित है। प्रतिदिन अतिचारों की आलोचना करते रहने से आत्मा कर्ममल से अतिमलिन नहीं होता है और भाव-आरोग्य रहता है। ज्यों ज्यों योगों का व्यापार अवरुद्ध होता है और कषाय मन्दतम होते जाते हैं, त्यों त्यों अतिचारों का लगना अल्प होता जाता है। द्वितीय वर्ग ऐसा है जो अयश-अकीर्ति, अवर्ण (निन्दा) या अवज्ञा के भय से अथवा यश-कीर्ति या पूजा-सत्कार कम हो जाने के भय से अतिचारों की आलोचना ही नहीं करते। तृतीय वर्ग ऐसा है जो आलोचना तो करता है पर मायापूर्वक करता है। यह सोचता है मैं यदि आलोचना नहीं करूँगा तो मेरा वर्तमान जीवन गर्हित हो जायेगा और भावी जीवन भी विकृत हो जायगा। अथवा आलोचना करूँगा तो मेरा वर्तमान एवं भावी जीवन प्रशस्त हो जायगा अथवा आलोचना कर लूँगा तो ज्ञान दर्शन एवं चारित्र की प्राप्ति हो जायगी। मायावी आलोचक को दुगुना प्रायश्चित्त देने का विधान प्रारम्भ के सूत्रों में है। चौथा वर्ग ऐसा है जो मायारहित आलोचना करता है, वह १. जातिसम्पन्न, २. कुलसम्पन्न, ३. विनयसम्पन्न, ४. ज्ञानसम्पन्न, ५. दर्शनसम्पन्न, ६. चारित्रसम्पन्न, ७. क्षमाशील, ८. निग्रहशील, ९. अमायी, १०. अपश्चात्तापी-ऐसे साधकों का यह वर्ग है। इनका व्यवहार और निश्चय दोनों शुद्ध होते हैं। आलोचक गीतार्थ हो या अगीतार्थ, उन्हें आलोचना सदा गीतार्थ के सामने ही करनी चाहिये। गीतार्थ के अभाव में किनके सामने करना चाहिए,' उनका एक क्रम है-जो छेदसूत्रों के स्वाध्याय से जाना जा सकता है। १. गाहा- आयरियपायमूलं, गंतूणं सइ परक्कमे। ताहे सव्वेण अत्तसोही, कायव्वा एस उवएसो॥ जह सकुसलो विवेज्जो, अन्नस्स कहेइ अत्तणों वाहिं। वेज्जस्स य सो सोउंतो, पडिकम्मं समारभते॥ जायांतेण वि एवं, पायच्छित्तविहिमप्पणो निउणं। तह वि य पागडतरयं, आलोएदव्वयं होइ॥ जह बालो जप्पंतो, कज्जमकजं च उज्जुयं भणइ । तं तय आलोइज्जा मायामय विप्पमुक्को उ॥ -व्यव० उ० १० भाष्य गाथा ४६०-४७१ ३३
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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