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पांचवां उद्देशक]
[२३३ विचिकित्स-पद का अर्थ है सूर्योदय हुआ या नहीं सूर्यास्त हुआ या नहीं, इस प्रकार के संशय वाला भिक्षु।
निर्विचिकित्स-पद का अर्थ है संशयरहित-अर्थात् 'सूर्योदय हो गया है' या 'सूर्यास्त नहीं हुआ है'-इस प्रकार के निश्चय वाला निर्ग्रन्थ।
निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियां एक देश से अन्य देश में जाते समय बीच में पड़ने वाले बड़े अरण्यप्रदेशों में आत्मसुरक्षा के लिए कदाचित सार्थवाहों के साथ विहार करें। वह सार्थवाह जहां सूर्यास्त हो वहीं पड़ाव डालकर ठहर जावे। सूर्योदय होते ही आगे चल देवे। ऐसे पड़ावों पर सामने से आने-जाने वाले सार्थवाह भी कभी-कभी एक साथ ही ठहर जावें। उस समय मेघाच्छन्न आकाश में सूर्य न दिखने पर सूर्योदय का भ्रम हो जाने से सार्थवाह आगे के लिए प्रस्थान कर दे तब नया आने वाला सार्थवाह निर्ग्रन्थों या निर्ग्रन्थियों को आहार देना चाहे तो 'सूर्योदय हो गया है' इस संकल्प से आहारदि देना सम्भव है और उसका सेवन करना भी सम्भव है।
उसी समय बादल दूर हो जाए और उषाकालीन प्रभा दिख जाए या सूर्योदय होता हुआ दिख जाए तो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी को वह आहार परठ देना चाहिए। अन्यथा वह सूत्रोक्त प्रायश्चित्त का भागी होता है।अन्य विवेचन निशीथउ. १०, सूत्र २८ में देखें। वहां भी ये चार सूत्र इसी प्रकार के कहे गये हैं। उद्गाल सम्बन्धी विवेक एवं प्रायश्चित्त-विधान
१०. इह खलु निग्गंथस्स वा निग्गंथीए वा राओ वा वियाले वा सपाणे सभोयणे उग्गाले आगच्छेज्जा, तं विगिंचमाणे वा विसोहेमाणे वा नो अइक्कमइ।
तं उग्गलित्ता पच्चोगिलमाणे राइभोयणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं।
१०. यदि किसी निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी को रात्रि में या विकाल (सन्ध्या) में पानी और भोजन सहित उद्गाल आये तो उस समय वह उसे थूक दे और मुंह शुद्ध कर ले तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं रहता है।
यदि वह उद्गाल को निगल जावे तो उसे रात्रि-भोजनसेवन का दोष लगता है और वह अनुद्घातिक चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का पात्र होता है।
विवेचन-जब कभी कोई साधु मात्रा से अधिक खा-पी लेता है, तब उसे उद्गाल आता है और पेट का अन्न और पान मुख में आ जाता है। इसलिए गुरुजनों का उपदेश है कि साधु को सदा मात्रा से कम ही खाना-पीना चाहिए।
कदाचित् साधु के अधिक मात्रा में आहार-पान हो जाए और रात में या सायंकाल में उद्गाल आ जाए तो उसे सूत्रोक्त विधि के अनुसार वस्त्र आदि से मुख को शुद्ध कर लेना चाहिए। जो उस उद्गाल आये भक्त-पान को वापस निगल जाता है वह सूत्रोक्त प्रायश्चित का भागी होता है। इस विषय को स्पष्ट करने के लिए भाष्यकार ने एक रूपक दिया है।