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दूसरा उद्देशक]
इन पांच जाति के वस्त्रों में से जब जहां जो सुलभ एवं कल्पनीय प्राप्त हो उसे ग्रहण किया जा सकता है। प्राथमिकता सूती एवं ऊनी इन दो को ही दी जानी चाहिए। निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी के लिए कल्पनीय रजोहरण
३०. कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इमाइं पंच रयहरणाइंधारित्तए वा परिहारित्तए वा, तं जहा-१. ओण्णिए, २. उट्टिए, ३. साणए, ४. वच्चाचिप्पए, ५. मुंजचिप्पए नामं पंचमे।
त्ति बेमि। ३०. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को इन पांच प्रकार के रजोहरणों को रखना और उनका उपयोग करना कल्पता है। यथा
१. और्णिक, २. औष्ट्रिक, ३. सानक, ४. वच्चाचिप्पक, ५. मुंजचिप्पक।
विवेचन-जिसके द्वारा धूलि आदि द्रव्य-रज और कर्म-मलरूप भाव-रज दूर की जाए उसे 'रजोहरण' कहते हैं।
___ द्रव्यरजोहरण-गमनागमन करते हुए पैरों पर लगी रज या मकान में आई रज इससे प्रमार्जन करके दूर की जाती है, अत: यह 'द्रव्यरजोहरण' है।
भावरजोहरण-भूमिगत, शरीर या वस्त्र-शय्यादि पर चढ़े हुए कीड़े-मकोड़े आदि को कष्ट पहुँचाए बिना रजोहरण से दूर किया जा सकता है, अतः जीवरक्षा का साधन होने से यह 'भावरजोहरण' है।
यह रजोहरण पांच प्रकार का होता है१. और्णिक-जो भेड़ आदि की ऊन से बनाया जाए वह 'और्णिक' है। २. औष्ट्रिक-जो ऊँट के केशों से बनाया जाए वह 'औष्ट्रिक' है। ३. शानक-जो सन के वल्कल से बनाया जाय वह 'शानक' है। ४. वच्चाचिप्पक-वच्चा का अर्थ डाभ या घास है, उसे कूटकर और कर्कश भाग दूरकर
बनाये गये रजोहरण को 'वच्चाचिप्पक' कहते हैं। ५. मुंजचिप्पक-मुंज को कूटकर तथा उसके कठोर भाग को दूर करके बनाए गए रजोहरण
को 'मुंजचिप्पक' कहते हैं। स्थानांग अ. ५, उ. ३ में भी रज़ोहरण के ये पांच प्रकार कहे हैं।
इन पांचों में पूर्व-पूर्व के कोमल होते हैं और उत्तर-उत्तर के कर्कश। अतः सबसे कोमल होने से और्णिक रजोहरण ही प्रशस्त या उत्तम माना गया है। उसके अभाव में औष्ट्रिक और उसके अभाव में शानक रजोहरण का भाष्यकार ने स्पष्ट निर्देश किया है। यदि किसी देश-विशेष में उक्त तीनों ही प्रकार के रजोहरण उपलब्ध न हों तो वैसी दशा में ही वच्चाचिप्पक और उसके भी अभाव में मुंजचिप्पक रजोहरण ग्रहण करने का विधान है।