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________________ १७२] [बृहत्कल्पसूत्र यदि वह आहार पूज्य जनों को अप्रातिहारिक दे दिया गया हो अर्थात् खाने के बाद शेष रहा आहार शय्यातर को पुनः नहीं लौटाना हो तो वैसे आहार को ग्रहण किया जा सकता है। यदि उस आहार को शय्यातर या उसके परिजन दें तो नहीं लिया जा सकता है, किन्तु अन्य पूज्य जन आदि दें तो लिया जा सकता है। इन सूत्रों से यह भी फलित होता है कि शय्यातर के स्वामित्व से रहित आहार भी शय्यातर के हाथ से या उसके पुत्र, पौत्र, स्त्री, पुत्रवधू आदि के हाथ से नहीं लिया जा सकता है, किन्तु विवाहित लड़कियों के हाथ से वह आहार लिया जा सकता है। निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी के लिए कल्पनीय वस्त्र २९. कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा-इमाइं पंच वत्थाई धारित्तए वा परिहरित्तए वा, तं जहा-१. जंगिए, २. भंगिए, ३. साणए, ४. पोत्तए, ५. तिरीडपट्टे नामं पंचमे। २९. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को पांच प्रकार के वस्त्रों को रखना और उनका उपयोग करना कल्पता है। यथा १. जांगमिक, २. भांगिक, ३. सानक, ४. पोतक, ५. तिरीटपट्टक। विवेचन-१. जांगमिक-भेड़ आदि के बालों से बने वस्त्र को 'जांगमिक' कहते हैं। २. भांगिक-अलसी आदि की छाल से बने वस्त्र को 'भांगिक' कहते हैं। ३. शाणक-सन (जूट) से बने वस्त्रों को 'शाणक' कहते हैं। ४. पोतक-कपास से बने वस्त्र को 'पोतक' कहते हैं। ५. तिरीटपट्टक-तिरीट (तिमिर) वृक्ष की छाल से बने वस्त्र को 'तिरीटपट्टक' कहते हैं। ये पांच प्रकार के वस्त्र साधु के लिए कल्पनीय हैं। ऐसा सूत्र-निर्देश होने पर भी भाष्यकार ने इनमें से साधु-साध्वी के लिए दो सूती और एक ऊनी ऐसे तीन वस्त्रों को रखने का ही निर्देश किया है। जंगम का अर्थ त्रसजीव है। त्रसजीव दो प्रकार के होते हैं-विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय। कोशा, रेशम और मखमल विकलेन्द्रियप्राणिज वस्त्र हैं। इनका उपयोग साधु के लिए सर्वथा वर्जित है, क्योंकि ये उन प्राणियों का घात करके निकाले गये धागों से बनते हैं। पंचेन्द्रियजीवों के चर्म से निर्मित वस्त्र भी साधु-साध्वी के लिये निषिद्ध हैं। किन्तु उनके केशों से निर्मित ऊनी वस्त्रों का उपयोग साधु-साध्वी कर सकते हैं। क्योंकि भेड़ आदि के केश काटने से उन प्राणियों का घात नहीं होता है। अपितु ऊन काटने के बाद उनको हल्केपन का ही अनुभव होता है। आचा. श्रु. २, अ. ५, उ. १ में तथा ठाणांग अ. ५, उ. ३ में भी ये वस्त्र कल्पनीय बताये हैं। . आचारांगसूत्र में यह भी कहा गया है कि-'जो भिक्षु तरुण स्वस्थ एवं समर्थ हो वह इनमें से एक ही जाति के वस्त्र रखे, अनेक जाति के नहीं रखे। अन्य सामान्य भिक्षु एक या अनेक जाति के वस्त्र रख सकते हैं।'
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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