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________________ ४-७ १७४] [बृहत्कल्पसूत्र विपरीत क्रम से रजोहरण के ग्रहण करने पर लघुमासिक प्रायश्चित्त का निर्देश किया है। साधु-साध्वी के संयम की रक्षा के लिए तथा शारीरिक रज को दूर करने के लिए एक रजोहरण रखना आवश्यक होता है। दूसरे उद्देशक का सारांश सूत्र १-३ जिस मकान में धान्य बिखरा हुआ हो उसमें नहीं ठहरना किन्तु व्यवस्थित राशीकृत हो तो मासकल्प एवं मुहरबन्द हो तो पूरे चातुर्मास भी रहा जा सकता है। जिस मकान की सीमा में मद्य के घड़े या अचित्त शीत या उष्ण जल के घड़े भरे हुए पड़े हों अथवा अग्नि या दीपक सम्पूर्ण रात्रि जलते हों तो वहां साधु-साध्वी को नहीं ठहरना चाहिए, किन्तु अन्य मकान के अभाव में एक या दो रात्रि ठहरा जा सकता है। ८-१० जिस मकान की सीमा में खाद्य पदार्थ के बर्तन यत्र-तत्र पड़े हों वहां नहीं ठहरना चाहिए किन्तु एक किनारे पर व्यवस्थित रखे हों तो मासकल्प एवं मुहरबन्द हों तो पूरे चातुर्मास भी रहा जा सकता है। ११-१२ धर्मशाला एवं असुरक्षित स्थानों में साध्वियों को नहीं ठहरना चाहिए, किन्तु अन्य स्थान के अभाव में साधु वहाँ ठहर सकते हैं। शय्या के अनेक स्वामी हों तो एक की आज्ञा लेकर उसे शय्यातर मानना एवं अन्य के घरों से आहारादि ग्रहण करना। १४-१६ शय्यादाता एवं अन्य का आहार किसी स्थान पर संगृहीत किया गया हो तो शय्यातर के घर की सीमा में और सीमा से बाहर अलग रखे हुए शय्यातर के आहार में से ग्रहण करना नहीं कल्पता है। किन्तु शय्यादाता के घर की सीमा के बाहर एवं अन्य संगृहीत आहार में शय्यातर का आहार मिला दिया गया हो तो ग्रहण किया जा सकता है। १७-१८ ___ साधु-साध्वी को शय्यादाता के अलग रखे हुए आहार को अन्य आहार में मिलवाना नहीं कल्पता है एवं ऐसा करने पर उसे गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। १९-२२ शय्यादाता की आहृतिका एवं निहतिका का आहार उसके आधीन हो तब तक ग्रहण नहीं किया जा सकता है। अन्य के आधीन हो तब ग्रहण किया जा सकता है। २३-२४ शय्यातर के स्वामित्व वाले आहारादि पदार्थों में से जब शय्यातर के स्वामित्व का अंश पूर्ण विभक्त होकर अलग कर दिया जावे तब शेष आहार में से ग्रहण करना कल्पता है, किन्तु शय्यातर का अंश पूर्णतः अलग न किया हो तो उसमें से ग्रहण करना नहीं कल्पता है।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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