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दूसरा उद्देशक]
[१६५ १२. निर्ग्रन्थों को आगमनगृह (धर्मशाला) में, चारों ओर से खुले घर में, छप्पर के नीचे अथवा बांस की जाली युक्त गृह में, वृक्ष के नीचे या आकाश के नीचे (खुले स्थानों में) रहना कल्पता
विवेचन-१. आगमनगृह-जहां पर पथिकों का आना-जाना हो ऐसे देवालय, सभा, धर्मशाला, सराय या मुसाफिरखाना आदि को 'आगमनगृह' कहते हैं।
२. विवृतगृह-केवल ऊपर से ढंके हुए और दो, तीन या चारों ओर से खुले स्थान को 'विवृतगृह' कहते हैं।
३. वंशीमूल-ब्रांस की चटाई आदि के ऊपर की ओर से ढंके और आगे की ओर से खुले ऐसे दालान, ओसारा, छपरी आदि को वंशीमूल कहते हैं । अथवा चौतरफ बांस की जाली से युक्त स्थान को 'वंशीमूल' कहते हैं।
४. वृक्षमूल-वृक्ष के तल भाग को 'वृक्षमूल' कहते हैं।
५. अभ्रावकाश-खुले आकाश को या जिसका अधिकांश ऊपरी भाग खुला हो ऐसे स्थान को 'अभ्रावकाश' कहते हैं।
ऐसे स्थान पर साध्वियों को किसी भी ऋतु में नहीं ठहरना चाहिए क्योंकि ये पूर्णत: असुरक्षित स्थान हैं। ऐसे स्थानों पर ठहरने से ब्रह्मचर्य व्रत भंग होने की सम्भावना रहती है।
विहार करते समय कभी सूर्यास्त का समय आ जाए और योग्य स्थान न मिले तो साध्वी को सूर्यास्त के बाद भी योग्य स्थान में पहुँचना अत्यन्त आवश्यक होता है।
साधुओं को ऐसे स्थान में ठहरने का सूत्र में जो विधान किया गया है, उसका कारण यह है कि पुरुषों में स्वाभाविक ही भयसंज्ञा अल्प होती है तथा ब्रह्मचर्यरक्षा के लिये भी उन्हें सुरक्षित स्थान की इतनी आवश्यकता नहीं होती है।
सामान्य स्थिति में तो स्थविरकल्पी भिक्षु को सूत्रोक्त स्थानों के अतिरिक्त अन्य ऐसे स्थानों में ठहरना चाहिए जहां ठहरने पर बाल, ग्लान आदि सभी भिक्षुओं के संयम, स्वाध्याय, आहार आदि का भलीभांति निर्वाह हो सके।
पूर्व सूत्र में 'वियड' शब्द अचित्त अर्थ में प्रयुक्त है और प्रस्तुत सूत्र में गृह के एक या अनेक दिशा में खुले होने के अर्थ में प्रयुक्त है। आगमों में शब्दप्रयोग की यह विलक्षण शैली है। अनेक स्वामियों वाले मकान की आज्ञा लेने की विधि
१३. एगं सागारिए पारिहारिए। दो, तिण्णि, चत्तारि, पंच सागारिया पारिहारिया। एगं तत्थ कप्पागं ठवइत्ता अवसेसे निव्विसेजा। १३. मकान का एक स्वामी पारिहारिक होता है। जिस मकान के दो, तीन, चार या पांच स्वामी हों, वहां एक को कल्पाक-शय्यातर मान करके