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________________ १६४] [बृहत्कल्पसूत्र गुड़, मालपुए, पूड़ी और श्रीखण्ड-उत्क्षिप्त, विक्षिप्त, व्यतिकीर्ण और विप्रकीर्ण हो तो निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को वहां 'यथालन्दकाल' रहना भी नहीं कल्पता है। ___९. यदि यह जाने कि (उपाश्रय में पिण्डरूप खाद्य यावत् श्रीखण्ड) उत्क्षिप्त, विक्षिप्त, व्यतिकीर्ण या विप्रकीर्ण नहीं है। ___ किन्तु राशीकृत, पुंजकृत, भित्तिकृत, कुलिकाकृत तथा लांछित मुद्रित या पिहित है तो निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को वहां हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में रहना कल्पता है। १०. यदि यह जाने कि (उपाश्रय के भीतर पिण्डरूप खाद्य यावत् श्रीखण्ड) राशीकृत यावत् कुलिकाकृत नहीं है। किन्तु कोठे में या पल्य में भरे हुए हैं, मंच पर या माले पर सुरक्षित हैं, कुम्भी या बोधी में धरे हुए हैं, मिट्टी या गोबर से लिप्त हैं, ढंके हुए, चिह्न किये हुए हैं या मुहर लगे हुए हैं तो उन्हें वहां वर्षावास रहना कल्पता है। विवेचन-सूत्र १-३ में धान्ययुक्त उपाश्रय मकान का वर्णन है और इन तीन सूत्रों में खाद्यपदार्थयुक्त मकान का वर्णन है। धान्य तो भूमि पर बिखरे हुए हो सकते हैं, किन्तु ये खाद्यपदार्थ बर्तन आदि में इधर-उधर अव्यवस्थित पड़े होते हैं। खाद्यपदार्थयुक्त उपाश्रय में ठहरने पर लगने वाले दोष १. खाद्य पदार्थों वाले मकान में कीड़ियों की उत्पत्ति ज्यादा होती है। २. चूहे बिल्ली आदि भी भ्रमण करते हैं। ३. असावधानी से पशु-पक्षी आकर खा सकते हैं। ४. उन्हें खाते हुए रोकने एवं हटाने में अन्तराय दोष लगता है एवं न हटाने पर मकान का स्वामी रुष्ट हो सकता है अथवा साधु के ही खाने की आशंका कर सकता है। ५. कभी कोई क्षुधातुर या रसासक्त भिक्षु का मन खाने के लिये चलित हो सकता है एवं खा लेने पर अदत्त दोष लगता है। ६. खाद्य पदार्थों की सुगन्ध या दुर्गन्ध से अनेक शुभाशुभ संकल्प हो सकते हैं, जिससे कर्मबन्ध होता है। अन्य विवेचन सूत्र १-३ के समान समझना चाहिये। साधु-साध्वी के धर्मशाला आदि में ठहरने का विधि-निषेध ११. नो कप्पइ निग्गंथीणं अहे आगमणगिहंसि वा, वियडगिहंसि वा, वंसीमूलंसि वा, रुक्खमूलंसि वा, अब्भावगासियंसि वा वत्थए। १२. कप्पइ निग्गंथाणं अहे आगमणगिहंसि वा, वियडगिहंसि वा, वसीमूलंसि वा, रुक्खमूलंसि वा, अब्भावगासियंसि वा वत्थए। ___ ११. निर्ग्रन्थियों को आगमनगृह में, चारों ओर से खुले घर में, छप्पर के नीचे अथवा बांस की जाली युक्त गृह में, वृक्ष के नीचे या आकाश के नीचे (खुले स्थानों में) रहना नहीं कल्पता है।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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