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________________ १६६] [बृहत्कल्पसूत्र शेष को शय्यातर नहीं मानना चाहिए अर्थात् उनके घरों में आहारादि लेने के लिए जा सकते हैं। विवेचन-अगार घर का पर्यायवाची है। घर या वसति के स्वामी को 'सागारिक' कहते हैं। सागारिक मनुष्य को ही शय्यातर, शय्याकर, शय्यादाता और शय्याधर भी कहते हैं। जो साधु-साध्वियों को शय्या अर्थात् ठहरने का स्थान, वसति या उपाश्रय देकर अपनी आत्मा को संसार-सागर से तारता है, उसे शय्यातर कहते हैं। शय्या-वसति आदि को जो बनवाता है, उसे शय्याकर कहते हैं। जो साधुओं को ठहरने का स्थान रूप शय्या देता है, उसे शय्यादाता कहते हैं। जो वसति या उपाश्रय की छान-छप्पर आदि के द्वारा उसका धारण या संरक्षण करता है अथवा साधओं को दी गई शय्या के द्वारा नरक में जाने से अपनी आत्मा को धारण करता है, अथोत् बचाता है, उसे शय्याधर कहते हैं। यह शय्यातर सागारिक जिस साधु या साध्वी को ठहरने के लिए वसति या उपाश्रय रूप शय्या दे, साधु को उसके घर का भक्त-पान ग्रहण करने का आगम में निषेध किया गया है, अत: उसे पारिहारिक कहते हैं। यदि किसी स्थानक या मकान के अनेक (मनुष्य) स्वामी हों तो वे सभी पारिहारिक होते हैं, अतः उस स्थान के सभी स्वामियों में से किसी एक को 'कल्पाक' (शय्यातर) स्थापित करके जिससे आज्ञा प्राप्त करे उसके घर का भक्त-पान आदि ग्रहण नहीं करे। उसके सिवाय जितने भी स्वामी उस स्थानक या मकान के भागीदार या हिस्सेदार हैं, उनको शय्यातर रूप से न माने अर्थात् उनके घरों से आहार-पानी ग्रहण किया जा सकता है। सूत्रोक्त 'निव्विसेज्जा' इस प्राकृत पद के टीकाकार ने दो प्रकार के अर्थ किये हैं १. निर्विशेत्-विसर्जयेत्-शय्यातरत्वेन न गणयेत्। अथवा- २. निर्विशेत्-प्रविशेत् आहारार्थ तेषां (शेषाणां) गृहेषु अनुविशेत्। ___ इसके अतिरिक्त भाष्यकार ने शय्या कितने प्रकार की होती है, कौन-कौन सागारिक माने जाएँ, सागारिक के पिण्ड से भक्त-पान, वस्त्र, पात्रादि का भी ग्रहण अभीष्ट है इत्यादि अनेक ज्ञातव्य बातों की विस्तृत व्याख्या की है, जिसका सारांश निशीथ उद्देशक २, सूत्र ४६ में दिया गया है। जिज्ञासु पाठक वहीं देखें। ___ अनेक स्वामियों में से एक को शय्यातर करके फिर कुछ दिन बाद दूसरे को भी शय्यातरकल्पाक बनाया जा सकता है। जिससे अनेक को शय्यादान का एवं आहारादि दान का लाभ प्राप्त हो सकता है। यह भी इस सूत्र से फलित होता है। संसृष्ट असंसृष्ट शय्यातरपिंडग्रहण के विधि-निषेध १४. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सागारियपिण्डं बहिया अनीहडं, असंसटें वा संसह्र वा पडिगाहित्तए।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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