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________________ प्रथम उद्देशक ] [ १४१ यद्यपि उक्त दोष साधु-साध्वी दोनों के लिए समान हैं, फिर भी साध्वी के लिये सूत्र में जो विधान किया है वह अपवाद स्वरूप है। क्योंकि उन्हें गृहस्थ की निश्रायुक्त उपाश्रय में भी ठहरना होता है। श्रायुक्त उपाश्रयं कभी अप्रतिबद्ध न मिले तो प्रतिबद्ध स्थान में ठहरना उनको आवश्यक हो जाता है। ऐसे समय में उन्हें किस विवेक से रहना चाहिए, इसकी विस्तृत जानकारी भाष्य से करनी चाहिये । विशेष परिस्थिति में कदाचित् साधु को भी ऐसे स्थान में ठहरना पड़ जाय तो उसकी विधि भी भाष्य में बताई गई है। उत्सर्ग विधि से तो साधु-साध्वी को अप्रतिबद्ध शय्या में ही ठहरना चाहिये । प्रतिबद्ध मार्ग वाले उपाश्रय में ठहरने का विधि-निषेध ३२. नो कप्पइ निग्गंथाणं गाहावइ - कुलस्स मज्डांमज्येणं गंतुं वत्थए । ३३. कप्पइ निग्गंथीणं गाहावइ - कुलस्स मज्झमज्झेणं गंतुं वत्थए । ३२. गृह के मध्य में होकर जिस उपाश्रय में जाने-आने का मार्ग हो उस उपाश्रय में निर्ग्रन्थों को रहना नहीं कल्पता है । ३३. गृह के मध्य में होकर जिस उपाश्रय में जाने-आने का मार्ग हो उस उपाश्रय में निर्ग्रन्थियों को रहना कल्पता है। विवेचन - यदि कोई उपाश्रय ऐसे स्थान पर हो जहां कि गृहस्थ के घर के बीचोंबीच होकर जाना-आना पड़े और अन्य मार्ग नहीं हो, ऐसे उपाश्रय में साधुओं को नहीं ठहरना चाहिए, क्योंकि गृहस्थ के घर के बीच में होकर जाने-आने पर उसकी स्त्री, बहिन आदि के रूप देखने, शब्द सुनने एवं गृहस्थी के अनेक प्रकार के कार्यकलापों के देखने से साधुओं का चित्त विक्षोभ को प्राप्त हो सकता है। अथवा घर में रहने वाली स्त्रियां क्षोभ को प्राप्त हो सकती हैं। फिर भी साध्वियों को ठहरने का जो विधान सूत्र में है, उसका अभिप्राय यह है कि निर्दोष निश्रा युक्त उपाश्रय न मिले तो ऐसे उपाश्रय में साध्वियां ठहर सकती हैं। पूर्व सूत्रद्वय में प्रतिबद्ध स्थान का कथन किया है। प्रस्तुत सूत्रद्वय में स्थान अप्रतिबद्ध होते हुए भी उसका मार्ग प्रतिबद्ध हो सकता है यह बताया गया है। साधु को ऐसे प्रतिबद्ध स्थानों का वर्जन करना अत्यन्त आवश्यक है और साध्वी को इतना आवश्यक नहीं है। इन सभी सूत्रों के विधि-निषेधों में ब्रह्मचर्य की रक्षा का हेतु ही प्रमुख है। स्वयं को उपशान्त करने का विधान ३४. भिक्खु य अहिगरणं कट्टु, तं अहिगरणं विओसवित्ता, विओसवियपाहुडे१. इच्छाए परो आढाएज्जा, इच्छाए परो णो आढाएज्जा । २. इच्छाए परो अब्भुट्ठेज्जा, इच्छाए परो णो अब्भुट्ठेज्जा । ३. इच्छाए परो वन्देज्जा, इच्छाए परो नो वन्देज्जा । ४. इच्छाए परो संभुंजेज्जा, इच्छाए परो नो संभुंजेज्जा ।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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