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ग्यारहवें, बारहवें, तेवीसवें, चौवीसवें और तीसवें स्थान में अपनी असत्य प्रशंसा करके दूसरों को धोखा देने की प्रवृत्ति को,
तेरहवें, चौदहवें, पन्द्रहवें स्थान में कृतघ्नता को,
सोलहवें, सत्रहवें स्थान में अनेकों के आधारभूत उपकारी पुरुष का घात करने को,
अठारहवें स्थान में धर्म से भ्रष्ट करने को,,
उन्नीसवें स्थान में ज्ञानी (सर्वज्ञ) का अवर्णवाद ( निन्दा) करने को,
बीसवें स्थान में न्यायमार्ग से विपरीत प्ररूपणा करने को,
इकवीसवें - बावीसवें स्थान में आचार्यादि की अविनय आशातना करने को,
पच्चीसवें स्थान में शक्ति होते हुए कषायवश निर्दय बनकर रोगी की सेवा न करने को,
छवीसवें स्थान में बुद्धि के दुरुपयोग से संघ में मतभेद पैदा करने को,
सत्तावीसवें स्थान में वशीकरण योग से किसी को परवश करके दुःखी करने को,
अट्ठावीसवें स्थान में अत्यधिक कामवासना को,
उनतीसवें स्थान में देवों का अवर्णवाद बोलने को महामोहनीय कर्मबंध का कारण कहा गया
मुमुक्षु साधक ऐसे कुकृत्यों को जानकर उनका त्याग करे। यदि पूर्व में इनका सेवन किया हो तो उनकी आलोचना आदि करके शुद्धि कर ले |
महामोहनीय कर्मबन्ध के उन स्थानों से विरत रहने वाला इस भव में यशस्वी होता है और परभव में सुगति प्राप्त करता है।
॥ नवमी दशा समाप्त ॥