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नवमी दशा]
[७९ २८. जो मानुषिक और दैवी भोगों की अतृप्ति से उनकी बार-बार अभिलाषा करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है।
२९. जो व्यक्ति देवों की ऋद्धि, द्युति, यश, वर्ण और बल-वीर्य का अवर्णवाद बोलता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है।
३०. जो अज्ञानी जिन देव की पूजा के समान अपनी पूजा का इच्छुक होकर देव, यक्ष और असुरों को नहीं देखता हुआ भी कहता है कि 'मैं इन सबको देखता हूँ' वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है।
ये मोह से उत्पन्न होने वाले, अशुभ कर्म का फल देने वाले, चित्त की मलीनता को बढ़ाने वाले दोष कहे गये हैं। अतः भिक्षु इनका आचरण न करे, किन्तु आत्मगवेषी होकर विचरे।
भिक्षु पूर्व में किये हुए अपने कृत्याकृत्यों को जानकर उनका पूर्ण रूप से परित्याग करे और उन संयमस्थानों का सेवन करे, जिनसे कि वह आचारवान् बने।
जो भिक्षु पंचाचार के पालन से सुरक्षित है, शुद्धात्मा है और अनुत्तर धर्म में स्थित है, वह अपने दोषों को त्याग दे। जिस प्रकार 'आशिविष-सर्प', विष का वमन कर देता है।
इस प्रकार दोषों को त्यागकर शुद्धात्मा, धर्मार्थी, भिक्षु, मोक्ष के स्वरूप को जानकर इस लोक में कीर्ति प्राप्त करता है, और परलोक में सुगति को प्राप्त होता है।
जो दृढ पराक्रमी, शूरवीर भिक्षु इन सभी स्थानों को जानकर उन मोहबन्ध के कारणों का त्याग कर देता है, वह जन्म-मरण का अतिक्रमण करता है, अर्थात् संसार से मुक्त हो जाता है।
विवेचन-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने साधु साध्वियों को सम्बोधित कर महामोहनीय कर्मबंध के तीस स्थान कहे हैं। यद्यपि यतनापूर्वक व्यवहार करने वाला भिक्षु सामान्य पापकर्म का भी बंध नहीं करता है तथापि उसे महामोहनीय कर्मबंध के स्थानों का कथन किया गया है, जिसका प्रयोजन यह है कि साधना-पथ पर चलते हुए भी कभी कोई भिक्षु कषायों के वशीभूत होकर क्लेश, ममत्व, अभिमान और दुर्व्यवहार आदि दोषों से दूषित हो सकता है। अतः शासन के समस्त साधु-साध्वियों को लक्ष्य में रखकर भगवान् ने इन तीस महामोहनीय कर्मबन्ध-स्थानों का कथन किया है
एक से छह स्थानों में क्रूरता युक्त हिंसक वृत्ति को, सातवें स्थान में माया (कपट) को, आठवें स्थान में असत्य आक्षेप लगाने को, नवमें स्थान में न्याय के प्रसंग पर मिश्रभाषा के प्रयोग से कलहवृद्धि कराने को, दसवें, पन्द्रहवें स्थान में विश्वासघात करने को,