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________________ आठवीं दशा ] [ ६९ नियुक्तिकार के समय तक भी इस बारसा कल्पसूत्र अर्थात् पर्युषणाकल्पसूत्र का अस्तित्व नहीं था । साथ ही एक बात और भी ध्यान में रखनी चाहिए कि इसका परिचायक यह नाम विक्रम की बारहवीं शताब्दी पूर्व के किसी भी आगम या ग्रन्थ में देखने को नहीं मिलता है । आचार्य मलयगिरि के समय तक प्रायः सभी आगमों की नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका आदि व्याख्याएँ रची गई थीं किन्तु इस कल्पसूत्र की व्याख्या करने का किसी भी विद्वान् ने संकल्प नहीं किया और कहीं किसी ने इसका नाम निर्देश भी नहीं किया । एक प्रचलित धारणा यह भी है कि 'ध्रुवसेन राजा के पुत्रशोक को दूर करने के लिये कालकाचार्य ने आठवीं दशा का सभा में वाचन किया और उस समय से ही यह अलग सूत्र के रूप में प्रचलित हुआ । उसका आज तक पर्युषण के दिनों में सभा के बीच वाचन किया जाता है।' यह भी एक कल्पना कल्पित करके फिट कर दी गई है, इसमें मौलिकता तनिक भी नहीं है। इतिहास के अध्ययन से ज्ञात होता है कि कालकाचार्य अनेक हुए हैं, उनमें अन्तिम कालकाचार्य देवर्द्धिगण के समय वीरनिर्वाण की दसवीं सदी में और विक्रम की छट्ठी सदी के प्रारम्भ में हुए हैं। ध्रुवसेन राजा भी तीन हुए हैं, जिनमें प्रथम ध्रुवसेन वीरनिर्वाण की ११ वीं शताब्दी के मध्यकाल में, दूसरे १२वीं शताब्दी के मध्यकाल में और तीसरे १२वीं शताब्दी के अन्तिम काल में हुए हैं। प्रथम ध्रुवसेन राजा के पुत्रशोक की घटना वीरनिर्वाण के बाद ग्यारहवीं शताब्दी के ५४वें वर्ष में घटी है । उस समय में आनन्दपुर में कालकाचार्य के चातुर्मास करने का कोई भी उल्लेख इतिहास से सिद्ध नहीं हो सकता है। सामान्य साधुओं को और साध्वियों को भी छेदसूत्र नहीं पढ़ाये जाने की धारणा और परम्परा अनेक उल्लेख प्राप्त होते हैं। ऐसे इस छेदसूत्र के अध्ययन को पुत्रशोक दूर करने के लिये राजसभा में वाचन करने का कथन किंचित् भी उचित नहीं कहा जा सकता है। इस प्रकार उपलब्ध कल्पसूत्र का यह स्वतन्त्र स्वरूप प्राचीन सिद्ध नहीं होता है । अतः दशाश्रुतस्कन्ध की आठवीं दशा में उसके सम्पूर्ण अस्तित्व का अथवा उसके संक्षिप्त पाठ का बाद में संकलित होना या प्रक्षिप्त करना स्वतः सिद्ध है । अनुप्रेक्षा फलित ज्ञातव्य यह है विक्रम की १२वीं, १३वीं शताब्दी में चुल्लकल्पसूत्र, महाकल्पसूत्र या पट्टावलियां आदि के संग्रह से यह सूत्र संकलित किया गया और इसके साथ पर्युषणाकल्प नामक आठवीं दशा रूप समाचारी को परिवर्धित या परिवर्तित करके अन्त में जोड़ा गया है तथा उस समूचे संग्रहसूत्र को चौदह पूर्वी भद्रबाहु की रचना कहकर प्रसिद्ध किया गया और प्राचीनता दिखाने के लिए सभा में वाचन का नाम भी कल्पित असंगत कथा द्वारा कालकाचार्य से जोड़ दिया गया। यहां तक कि दशाश्रुतस्कन्ध की आठवीं दशा में भी पूरा पर्युषणाकल्पसूत्र लिख दिये जाने का दुस्साहस होने लगा । इस प्रकार २१०० श्लोक-प्रमाण पूर्ण दशाश्रुतस्कन्ध कल्पित कर उसको चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु की रचना कहकर उसका महत्त्व बढ़ाया गया है। इससे अच्छी तरह निर्णय हो जाता है कि 'आठवीं' दशा में उपलब्ध सम्पूर्ण पर्युषणाकल्पसूत्र रूप संक्षिप्त पाठ मौलिक नहीं है।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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