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[ दशाश्रुतस्कन्ध
सेणावइम्मि निहए, जहा सेणा पणस्सति । एवं कम्माणि णस्संति मोहणिज्जे खयं गए ॥ १२ ॥ धूमहीणो जहा अग्गी, खीयति से निरिंधणे । एवं कम्माणि खीयंति, मोहणिजे खयं गए ॥ १३॥ सुक्क - मूले जहा रुक्खे, सिंचमाणे ण रोहति । एवं कम्मा ण रोहंति, मोहणिजे खयं गए ॥ १४॥ जहा दड्डाणं बीयाणं, न जायंति पुर्णकुरा । कम्म- बीएस दड्ढेसु, न जायंति भवंकुरा ॥ १५ ॥ चिच्चा ओरालियं बोंदिं, नाम - गोयं च केवली । आउयं वेयणिज्जं च, छित्ता भवति नीरए ॥ १६ ॥ एवं अभिसमागम्म, चित्तमादाय आउसो । सेणि- सुद्धिमुवागम्म, आया सोधिमुवेहइ ॥ १७ ॥ - त्ति बेमि । आयुष्मन् ! मैंने सुना है - उन निर्वाण प्राप्त भगवान् महावीर ने ऐसा कहा हैइस आर्हत प्रवचन में स्थविर भगवन्तों ने दस चित्तसमाधिस्थान कहे हैं ।
प्र० - भगवन् ! वे कौन से दस चित्तसमाधिस्थान स्थविर भगवन्तों ने कहे हैं ? उ०- ये दस चित्तसमाधिस्थान स्थविर भगवन्तों ने कहे हैं। जैसे
उस काल और उस समय में वाणिज्यग्राम नगर था । यहाँ पर नगर का वर्णन कहना चाहिए। उस वाणिज्यग्राम नगर के बाहर उत्तर-पूर्व दिग्भाग (ईशानकोण) में दूतिपलाशक नाम का चैत्य था । यहाँ पर चैत्यवर्णन कहना चाहिए।
वहाँ का राजा जितशत्रु था । उसकी धारणी नाम की देवी थी। इस प्रकार सर्व समवसरणवर्णन कहना चाहिए। यावत् - शिलापट्टक पर वर्धमान स्वामी विराजमान हुए। धर्मोपदेश सुनने के लिए परिषद् निकली। भगवान् ने धर्म का निरूपण किया । परिषद् वापिस चली गई।
हे आर्यो ! इस प्रकार सम्बोधन कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी निर्ग्रन्थों और निग्रन्थिनियों से कहने लगे
हे आर्यो ! निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थिनियों को, जो कि ईर्यासमिति वाले, भाषासमिति वाले, एषणासमिति वाले, आदान- भाण्ड मात्रनिक्षेपणासमिति वाले, उच्चार - प्रश्रवण- खेल - सिंघाणक- जल्लमल्ल की परिष्ठापनासमिति वाले, मनः समिति वाले, वचनसमिति वाले, कायसमिति वाले, मनोगुप्ति वाले, वचनगुप्ति वाले, कायगुप्ति वाले तथा गुप्तेन्द्रिय, गुप्तब्रह्मचारी, आत्मार्थी, आत्मा का हित करने वाले, आत्मयोगी, आत्मपराक्रमी, पाक्षिकपौषधों में समाधि को प्राप्त और शुभ ध्यान करने वाले हैं। उन मुनियों को ये पूर्व अनुत्पन्न चित्तसमाधि के दस स्थान उत्पन्न हो जाते हैं। वे इस प्रकार हैं