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पांचवीं दशा]
[३७ १. पूर्व असमुत्पन्न (पहले कभी उत्पन्न नहीं हुई) ऐसी धर्म-भावना यदि साधु के मन में
उत्पन्न हो जाय तो वह सर्व धर्म को जान सकता है, इससे चित्त को समाधि प्राप्त हो
जाती है। २. पूर्व असमुत्पन्न संज्ञि जातिस्मरण द्वारा संज्ञि-ज्ञान यदि उसे उत्पन्न हो जाय और अपने
पूर्व जन्मों का स्मरण कर ले तो चित्तसमाधि प्राप्त हो जाती है। ३. पूर्व अदृष्ट यथार्थ स्वप्न यदि दिख जाय तो चित्तसमाधि प्राप्त हो जाती है। ४. पूर्व अदृष्ट देवदर्शन यदि दिख जाय और दिव्य देवऋद्धि, दिव्यधुति और दिव्य
देवानुभाव दिख जाय तो चित्तसमाधि प्राप्त हो जाती है। ५. पूर्व असमुत्पन्न अवधिज्ञान यदि उसे उत्पन्न हो जाय और अवधिज्ञान के द्वारा वह लोक
को जान लेवे तो चित्तसमाधि प्राप्त हो जाती है। ६. पूर्व असमुत्पन्न अवधिदर्शन यदि उसे उत्पन्न हो जाय और अवधि-दर्शन के द्वारा वह
लोक को देख लेवे तो चित्तसमाधि प्राप्त हो जाती है। ७. पूर्व असमुत्पन्न मनःपर्यवज्ञान यदि उसे उत्पन्न हो जाय और मनुष्य क्षेत्र के भीतर
अढ़ाई द्वीप-समुद्रों में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों के मनोगत भावों को जान लेवे
तो चित्तसमाधि प्राप्त हो जाती है। ८. पूर्व असमुत्पन्न केवलज्ञान यदि उसे उत्पन्न हो जाय और केवल-कल्प लोक-अलोक
को जान लेवे तो चित्तसमाधि प्राप्त हो जाती है। ९. पूर्व असमुत्पन्न केवलदर्शन यदि उसे उत्पन्न हो जाय और केवल-कल्प लोक-अलोक
को देख लेवे तो चित्तसमाधि प्राप्त हो जाती है। १०. पूर्व असमुत्पन्न केवलमरण यदि उसे प्राप्त हो जाय तो सर्व दुःखों के सर्वथा अभाव से
पूर्ण शान्तिरूप समाधि प्राप्त हो जाती है। गाथार्थ१. राग-द्वेष-रहित निर्मल चित्त को धारण करने पर एकाग्रतारूप ध्यान उत्पन्न होता है और शंकारहित ___धर्म में स्थित आत्मा निर्वाण को प्राप्त करता है। २. इस प्रकार चित्तसमाधि को धारण कर आत्मा पुनः पुनः लोक में उत्पन्न नहीं होता और अपने ____ उत्तम स्थान को संज्ञि-ज्ञान से जान लेता है। ३. संवृत-आत्मा यथातथ्य स्वप्न को देखकर शीघ्र ही सर्व संसार रूपी समुद्र से पार हो जाता है तथा ___ शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के दुःखों से छूट जाता है। ४. अल्प आहार करने वाले, अन्त-प्रान्तभोजी, विविक्त शयन-आसनसेवी, इन्द्रियों का निग्रह करने
वाले और षट्कायिक जीवों के रक्षक संयत साधु को देवदर्शन होता है।