Disclaimer: This translation does not guarantee complete accuracy, please confirm with the original page text.
## Second Objective
**From the perspective of the field:** clothes that are readily available everywhere.
**From the perspective of time:** clothes that are suitable for everyone to wear.
**From the perspective of feeling:** clothes that are inexpensive and without attractive colors.
**Penance for wearing the same clothes**
24. A monk who wears the same clothes or approves of someone wearing the same clothes (incurs a minor monthly penance).
[41]
**Discussion:** The previous sutra spoke about the penance for taking and keeping whole clothes. This sutra speaks about the penance for taking and keeping the same clothes.
Here, the meaning of "abhinna" is "unbroken". Taking and keeping unbroken clothes leads to the following faults:
1. Not properly copying the clothes according to the rules.
2. The clothes being too heavy.
3. The clothes being stolen, etc.
Therefore, monks and nuns should take the necessary clothes according to the previously mentioned evidence.
**Penance for making utensils**
25. A monk who makes a clay pot, a wooden pot, or a metal pot himself or approves of someone making them (incurs a minor monthly penance).
**Discussion:** See the first objective sutra 30 for the meaning of the words.
Monks and nuns should be engaged in their self-study, meditation, and all kinds of worship at the appropriate time. They should not engage in any kind of utensil making without a compelling reason, because making utensils is also a kind of negligence.
They should make utensils with discretion if absolutely necessary. If they make them without discretion, they will incur the penance mentioned in the sutra.
**Penance for making things like sticks, etc.**
26. A monk who makes a stick, a club, a scraper, or a bamboo needle himself or approves of someone making them (incurs a minor monthly penance).
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दूसरा उद्ददेशक ]
क्षेत्र से प्रकृत्स्न - सर्वत्र सुलभ वस्त्र, काल से कृत्स्न - सर्वजनभोग्य वस्त्र,
भाव से प्रकृत्स्न - अल्पमूल्य वाला और प्राकर्षक वर्ण रहित वस्त्र ।
अभिन्न वस्त्र धारण का प्रायश्चित्त
२४. जे भिक्खू अभिण्णाइं वत्थाइं धरेद्द, धरेंतं वा साइज्जइ ।
२४. जो भिक्षु प्रभिन्न वस्त्र धारण करता है या धारण करने वाले का अनुमोदन करता है, ( उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है | )
[४१]
विवेचन - पूर्व सूत्र में " कृत्स्न वस्त्र लेने का तथा रखने का प्रायश्चित्त कहा है, इस सूत्र में अभिन्न" वस्त्र लेने व रखने का प्रायश्चित्त कहा है ।
यहां अभिन्न का अर्थ 'अखण्ड' है । प्रखण्ड वस्त्र लेने से तथा रखने से निम्न दोष होते हैं१. विधिपूर्वक वस्त्र की प्रतिलेखना न होना ।
२. अधिक भार वाला वस्त्र होना ।
३. वस्त्र का चुराया जाना आदि ।
इसलिए साधु-साध्वियों को प्रागमोक्त प्रमाणानुसार आवश्यक वस्त्र लेने चाहिये ।
पात्र परिकर्म-प्रायश्चित्त
२५. जे भिक्खू लाउयपायं वा, दारुपायं वा, मट्टियापायं वा, सयमेव परिघट्टे इ वा, संठवेइ वा जमावेइ वा परिघट्टतं वा संठवेतं वा जमावेंतं वा साइज्जइ ।
२५. जो भिक्षु तु बपात्र, काष्ठपात्र, मृत्तिकापात्र का परिघट्टन, संठवण और "जमावण" स्वयं करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है, ( उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त प्राता है | )
विवेचन - शब्दार्थ प्रादि प्रथम उद्देशक सूत्र ३० में देखें ।
साधु-साध्वियों का स्वाध्याय ध्यानादि सभी प्रकार की प्राराधनाएं यथासमय करने में संलग्न रहना चाहिए, अनिवार्य परिस्थिति के बिना सभी प्रकार के पात्रपरिकर्म नहीं करने चाहिए, क्योंकि परिकर्म करना भी एक प्रकार का प्रमाद ही है ।
अत्यावश्यक परिकर्म विवेक पूर्वक करना चाहिए, अविवेक से परिकर्म करने पर सूत्रोक्त प्रायश्चित्त प्राता है |
दण्ड आदि के परिकर्म करने का प्रायश्चित्त
२६. जे भिक्खू दंडयं वा, लट्ठियं वा, अवलेहणियं वा, वेणुसूइयं वा, सयमेव परिघट्ट ेइ वा, संठवे वा, जमावे वा, परिघट्टतं वा, संठवेंतं वा जमावेंतं वा साइज्जइ ।
२६. जो भिक्षु दण्ड, लाठी, अवलेहनिका और वांस की सूई का "परिघट्टण" "संठवण" "जमावण" स्वयं करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है, ( उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है ।)
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