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________________ ३६ ] [ निरयावलिकासूत्र नाइविगिठेहिं अन्तरावासेहिं वसमाणे वसमाणे अङ्गजणवयस्स मझमझेणं जेणेव विदेहे जणवए, जेणेव वेसाली नयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए। ३०. काल आदि दास कुमारों की उपस्थिति के अनन्तर कूणिक राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों - सेवकों को बुलाया और बुलाकर उनको यह आज्ञा दी – 'देवानुप्रियो! शीघ्र ही आभिषेक्य हस्ती-रत्न - हाथियों में प्रधान श्रेष्ठ हाथी को प्रतिकर्मित - सुसज्ज कर, घोड़े, हाथी, रथ, और श्रेष्ठ योद्धाओं से सुगठित चतुरंगिणी सेना को सुसन्नद्ध - युद्ध के लिये तैयार करो और फिर मेरी इस आज्ञा को वापस लौटाओ – मुझे सूचित करो कि आज्ञानुपालन हो गया।' यावत् वे सेवक आज्ञानुरूप कार्य सम्पन्न होने की सूचना देते हैं। तत्पश्चात् कूणिक राजा जहाँ स्नानगृह था वहाँ आया यावत् स्नानगृह में प्रविष्ट हुआ। प्रवेश करके मोतियों के समूह से युक्त होने से मनोहर, चित्र-विचित्र मणि-रत्नों से खचित फर्श वाले, रमणीय, स्नान-मण्डप में विविध मणि-रत्नों के चित्रामों से चित्रित स्नानपीठ पर सुखपूर्वक बैठकर उसने सुखद-शुभ, पुष्पोदक से, सुगंधित एवं शुद्ध जल से कल्याणकारी उत्तम स्नान-विधि से स्नान किया। स्नान करने के अनन्तर अनेक प्रकार के सैकड़ों कौतुक मंगल किये तथा कल्याणप्रद प्रवर स्नान के अंत में पक्ष्मल-रुएँदार काषायिक मुलायम वस्त्र से शरीर को पौंछा। नवीन-कोरे महा मूल्यवान् दृष्यरत्न (उत्तम वस्त्र) को धारण किया, सरस, सुगंधित गोशीर्ष चंदन से अंगों का लेपन किया। पवित्र माला धारण की, केशर आदि का विलेपन किया, मणियों और स्वर्ण से निर्मित आभूषण धारण किये। हार (अठारह लड़ों का हार) अर्धहार (नौ लड़ों का हार) त्रिसर (तीन लड़ों का हार) और लम्बे-लटकते कटिसूत्र – करधनी से अपने को सुशोभित किया, गले में ग्रैवेयक (कंठा) आदि आभूषण धारण किये, अंगुलियों में अंगूठी पहनीं। इस प्रकार सुललित अंगां को सुन्दर आभूषणों से आभूषित किया। मणिमय कंकणों, त्रुटितों एवं भुजबन्दों से भुजाएँ स्तम्भित हो गईं, जिससे उसकी शोभा और अधिक बढ़ गई। कुंडलों से उसका मुख चमक गया, मुकुट से मस्तक देदीप्यमान हो गया। हारों से आच्छादित उसका वक्षस्थल सुन्दर प्रतीत हो रहा था। लम्बे लटकते हुये वस्त्र को उत्तरीय (दुपट्टे) के रूप में धारण किया। मुद्रिकाओं से अंगुलियां पीतवर्ण-सी दिखती थीं। सुयोग्य शिल्पियों द्वारा निर्मित, स्वर्ण एवं मणियों के सुयोग से सुरचित, विमल महार्ह – महान् श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा धारण करने योग्य, सुश्लिष्ट – भली प्रकार से सांधा हुआ, विशिष्ट-उत्कृष्ट, प्रशस्त आकारयुक्त, वीरवलय (विशेष प्रकार का कंकण) धारण किया। अधिक क्या कहा जाय, कल्पवृक्ष के समान अलंकृत और विभूषित नरेन्द्र (कूणिक) कोरण्ट पुष्प की मालाओं से युक्त छत्र को धारण कर, दोनों पार्यों में चार चामरों से विंजाता हुआ, लोगों द्वारा मंगलमय जय-जयकार किया जाता हुआ, अनेक गणनायकों, दंडनायकों, राजा, ईश्वर, तलवर, माडंविक, कौटुम्बिक, मंत्री, महामंत्री, गणक, दौवारिक, अमात्य, चेट, पीठमर्दक, नागरिक, निगमवासी, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह, दूत, संधिपाल, आदिकों से घिरा हुआ, श्वेत-धवल महामेघ से निकले हुये देदीप्यमान ग्रहों एवं नक्षत्रमंडल के मध्य चन्द्रमा के सदृश प्रियदर्शन वह नरपति स्नानगृह से बाहर निकला। निकलकर जहां बाह्य सभाभवन था, वहां आया,
SR No.003461
Book TitleAgam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size4 MB
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