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________________ जाकर हरिवंश नामकरण हुआ, स्थापना हरि नामक पूर्व पुरुष से हुई, इसलिये स्पष्ट है कि वृष्णिवंश, हरिवंश का ही एक अंग है। प्रस्तुत उपांग के उपसंहार में लिखा है - निरयावलिका श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ। उपांग समाप्त हुए। निरयावलिका उपांग का एक ही श्रुतस्कन्ध है। इसके पाँव वर्ग हैं। ये पाँच वर्ग पाँच दिनों में उपदिष्ट किये जाते हैं। पहले से चौथे तक के वर्गों में दस-दस अध्ययन हैं और पाँचवें वर्ग में बारह अध्ययन है। निरयावलिका श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ। ___ यहां यह चिन्तनीय है कि निरयावलिका के उपसंहार में निरयावलिका की समाप्ति की सूचना दी गई। पुनः वृष्णिदशा के अंत में भी निरयावलिका के समाप्त होने की सूचना दी गई है। दो बार एक ही बात की सूचना कैसे आई ? इस सूचना में उपांग समाप्त हुए यह भी सूचन किया गया है। इससे यह तो स्पष्ट है ही कि वर्तमान में जो पृथक्-पृथक् कल्पिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा, ये पाँचों उपांग किसी समय एक ही उपांग के रूप में प्रतिष्ठित थे। व्याख्यासाहित्य ___ कथाप्रधान होने के कारण निरयावलिका पर न नियुक्तियाँ लिखी गईं, न भाष्य और न चूर्णियों का ही निर्माण हुआ। केवल श्रीचन्द्रसूरि ने संस्कृत भाषा में निरयावलिका कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूला और वृष्णिदशा पर संक्षिप्त और शब्दार्थस्पर्शी वृत्ति लिखी है। श्रीचन्द्रसूरि का ही अपर नाम पार्श्वदेवगणि था। ये शीलभद्रसूरि के शिष्य थे। उन्होंने विक्रम संवत् ११७४ में निशीथचूर्णि पर दुर्गपद व्याख्या लिखी थी और श्रमणोपासकप्रतिक्रमण, नन्दी, जीतकल्प बृहच्चूर्णि आदि आगमों पर भी इनकी टीकाएँ हैं। प्रस्तुत आगमों की वृत्ति के प्रारम्भ में आचार्य ने भगवान् पार्श्व को नमस्कार किया - पार्श्वनाथं नमस्कृत्य प्रायोऽन्यग्रन्थवीक्षिता। निरयावलिश्रुतस्कन्ध-व्याख्या काचित् प्रकाश्यते॥ वृत्ति के अंत में वृत्तिकार ने न स्वयं का नाम दिया है, न अपने गुरु का ही निर्देश किया है, न वृत्ति के लेखन का समय ही सूचित किया है। ग्रन्थ की जो मरित प्रति है उसमें 'इति श्रीचन्द्रसूरि विरचितं निरयावलिकाश्रुतस्कन्धविवरणं समाप्तमिति। श्रीरस्तु।' इतना उल्लेख है। वृत्ति का ग्रन्थमान ६०० श्लोक प्रमाण है। दूसरी संस्कृत टीका का निर्माण किया है। स्थानकवासी जैन परम्परा के आचार्य घासीलालजी महाराज ने । उनकी टीका सरल और सुबोध है। इस टीका में राजा कूणिक के पूर्वभव का भी वर्णन है। और भी कई प्रसंग हैं। इन दो संस्कृत टीकाओं के अतिरिक्त इन आगमों पर अन्य कोई संस्कृत टीकाएँ नहीं लिखी गई हैं। . सन् १९२२ में आगमोदय समिति सूरत ने चन्द्रसूरिकृत वृत्ति सहित निरयावलिका का प्रकाशन किया। ७०. निरयावलिमा, (वहिन्दसा.), अन्तिम भाग [३४]
SR No.003461
Book TitleAgam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size4 MB
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