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इस प्रकार उपांग में भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा में दीक्षित होने वाली दस श्रमणियों की चर्चा है। ऐतिहासिक दृष्टि से इस उपांग का अत्यधिक महत्त्व है। वर्तमान युग में भी साध्वियों का इतिहास मिलने में कठिनता हो रही है तो इस उपांग में भगवान् पार्श्व के युग की साध्वियों का वर्णन है। श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि, लक्ष्मी आदि जितनी भी विशिष्ट शक्तियां हैं, उनकी अधिष्ठात्री देवियाँ हैं। वण्हिदसा (वृष्णिदशा) - नन्दी चूर्णि के अनुसार प्रस्तुत उपांग का नाम अंधकवृष्णिदशा था। बाद में उसमें से 'अंधक' शब्द लुप्त हो गया। केवल वृष्णिदशा ही अवशेष रहा। आज यह उपांग इसी नाम से विश्रुत है। इस उपांग में वृष्णिवंशीय बारह राजकुमारों का वर्णन बारह अध्ययनों के द्वारा किया गया है। उन अध्ययनों के नाम क्रमशः इस प्रकार हैं - १. निषध कुमार, २. मातली कुमार, ३. वह कुमार, ४. वेह कुमार, ५. प्रगति (पगय)कुमार, ६. ज्योति (युचिकि)कुमार, ७. दशरथ कुमार, ८. दृढ़रथ कुमार, ९. महाधनु कुमार, १०. सप्तधनु कुमार, ११. दशधनु कुमार, १२. शतधनु कुमार।
द्वारका में वासुदेव श्रीकृष्ण का राज्य था। राजा बलदेव की रानी रेवती थी। उसने निषध कुमार को जन्म दिया। भगवान् अरिष्टनेमि एक बार द्वारका में पधारे। उनका आगमन सुन श्रीकृष्ण ने सामुदानिक भेरी द्वारा भगवान् के आगमन की उद्घोषणा करवायी और सपरिवार दल-बल सहित वे वन्दना के लिये गये। निषध कुमार भी भगवान् को नमस्कार करने के लिये पहुँचा। निषध कुमार के दिव्य रूप को देखकर भगवान् अरिष्टनेमि के प्रधान शिष्य वरदत्त मुनि ने उसके दिव्यरूप आदि के संबंध में पूछा। भगवान् ने बताया कि रोहीतक नगर में महाबल राजा राज्य करता था। उसकी रानी पद्मावती से वीरांगद नाम का पुत्र हुआ। युवावस्था में वह मनुष्य संबंधी भोगों को भोग रहा था। एक बार सिद्धार्थ आचार्य उस नगर में आये। उनका उपदेश श्रवण कर वीरांगद ने श्रमण-प्रव्रज्या ग्रहण की। अनेक प्रकार के तपादि अनुष्ठान किये और ११ अङ्गों का अध्ययन किया। इस प्रकार ४५ वर्ष तक श्रमणपर्याय का पालन किया। उसके बाद दो मास की संलेखना कर पापस्थानकों की आलोचना और शुद्धि करके समाधिभाव से कालधर्म प्राप्त करके ब्रह्म नामक पाँचवें देवलोक में देव हुआ। वहाँ देवायु पूर्ण करके यहाँ यह निषध कुमार के रूप में उत्पन्न हुआ और ऐसी मानुषी ऋद्धि, प्राप्त की है। यह निषध कुमार भगवान् अरिष्टनेमि के समीप अनगार होकर कालान्तर में निर्वाण प्राप्त हुए।
इसी प्रकार अन्य अध्ययनों में भी प्रसंग हैं। इस प्रकार वृष्णिदशा का समापन हुआ।६९
इस प्रकार हम देखते हैं कि वृष्णिदशा में यदुवंशीय राजाओं के इतिवृत्त का अंकन है। इसमें कथातत्त्वों की अपेक्षा पौराणिक तत्त्वों का प्राधान्य है। भगवान् अरिष्टनेमि का महत्त्व कई दृष्टियों से प्रतिपादित किया गया है। इसमें आये हुये यदुवंशीय राजाओं की तुलना श्रीमद् भागवत में आए हुये यदुवंशीय चरित्रों से की जा सकती है। हरिवंश पुराण के निर्माण के बीज भी यहां पर विद्यमान हैं। वृष्णिवंश की, जिसका आगे
६९. एवं सेसा वि एकारस अज्झयणा नेयव्वा संगहणीअणुसारेणं अहीणमइरित्तं एक्कारससु वि।
-वृष्णिदशा सूत्र, अन्तिमअंश
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