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________________ परिशिष्ट-१ ] [ १२३ हर्षित एवं संतुष्ट हुए। स्नान, कौतुक-मंगल प्रायश्चित्त किये हुए यावत् शरीर को अलंकृत कर तथा मस्तक पर सरसों और हरी-दूब से मंगल करके वे अपने-अपने घर से निकले तथा हस्तिनापुर नगर के मध्य भाग से होकर जहाँ बल राजा का श्रेष्ठ राजप्रासाद था, वहाँ आये। आकर दोनों हाथ जोड़ जय-विजय शब्दों से बल राजा को बधाया – उसका अभिवादन किया। ___ तदनन्तर बल राजा द्वारा वंदित, पूजित-सत्कारित और सम्मानित किए हुए वे स्वप्नलक्षणपाठक अपने लिये पहले से रखे हुए भद्रासनों पर बैठे। १२. तए णं से बले राया पभावई देविं जवणियन्तरियं ठावेइ, ठावेत्ता पुष्फफलपडिपुण्णहत्थे परेणं विणएणं ते सुविणलक्खणपाढए एवं वयासी – “एवु खलु, देवाणुप्पिया! पभावई देवी अज तंसि तारिसगंसि वासघरंसि जाव सीहं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धा, तं णं, देवाणुप्पिया! एयस्स ओरालस्स जाव के मन्ने कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइ ?' १२. तब बल राजा ने प्रभावती देवी को बुलाकर यवनिका के पीछे बिठाया और हाथों में पुष्प-फल लेकर अतिशय विनयपूर्वक उन स्वप्नलक्षणपाठकों से इस प्रकार निवेदन किया - . 'देवानुप्रिय! आज तथारूप (पूर्ववर्णित) वासगृह में शयन करते हुए प्रभावती देवी स्वप्न में सिंह को देखकर जाग्रत हुई है, तो हे दुवानुप्रियो! इस उदार यावत् मंगलरूप स्वप्न का क्या कल्याणकारक फल विशेष होगा ?' १३. तए णं ते सुविणलक्खणपाढगा बलस्स रन्नो अन्तियं एयमढें सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ तं सुविणं ओगिण्हन्ति, ईहं अणुप्पविसन्ति, तस्स सुविणस्स अत्थोग्गहणं करेन्ति, करेत्ता अन्नमन्नेणं सद्धिं संचालेन्ति, तस्स सुविणस्स लट्ठा पुच्छियट्ठा विणिच्छियट्ठा अभिगयट्ठा बलस्स रन्नो पुरओ सुविणसत्थई उच्चारेमाणा एवं वयासी - "एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं सुविणसत्थंसि बायालीसं सुविणा, तीसं महासुविणा, बावत्तरि सव्वसुविणा दिट्ठा। तत्थ णं देवाणुप्पिया, तित्थगरमायरो वा चक्कवट्टिमायरो वा तित्थगरंसि वा चक्कवट्टिसि वा गब्भं वक्कममाणंसि एएसिं तीसाए महासुविणाणं इमे चोद्दस महासुविणे पासित्ताणं पडिबुज्झन्ति, तं जहा - 'गय-वसह-सीह-अभिसेय-दाम-ससि-दिणयरं झयं कुम्भं। पउमसर-सागर-विमाण-भवण-रयणुच्चय-सिहिं च ॥ वासुदेवमायरो वा वासुदेवंसि गब्भं वक्कममाणंसि एएसिं चोहसण्हं महासुविणाणं सत्त महासुविणे पासित्ताणं पडिबुझंति। बलदेवमायरो बलदेवंसि गब्भं वक्कममाणंसि एएसिं चोइसण्हं महासुविणाणं अन्नयरे चत्तारि महासुविणे पासित्ताणं पडिबुझंति। मंडलियमायरो मंडलियंसि गब्भं वक्कममाणंसि एएसिं चोद्दसण्हं महासुविणाणं अन्नयरं एगं महासुविणं पासित्ताणं पडिबुज्झन्ति। इमे य णं, देवाणुप्पिया! पभावईए देवीए एगे महासुविणे दिढे अत्थलाभो देवाणुप्पिए! भोगलाभो
SR No.003461
Book TitleAgam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size4 MB
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