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________________ १२४ ] [महाबल देवाणुप्पिए! पुत्तलाभो देवाणुप्पिए! रजलाभो देवाणुप्पिए! एवं खलु देवाणुप्पिए! पभावई देवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव वीइक्कन्ताणं तुम्हं कुलकेउं जाव पयाहिइ। से वि य णं दारए उम्मुक्कबालभावे जाव रज्जवई राया भविस्सइ, अणगारे वा भावियप्पा। तं ओराले णं देवाणुप्पिया! पभावईए देवीए सुविणे दिढे जाव आरोग्ग-तुट्ठि-दीहाउअं कल्लाणं जाव दिठे।' ३. राजा के इस प्रश्न को सुनकर और अवधारित कर उन स्वप्नपाठकों ने हृष्ट-तुष्ट होकर उस स्वप्न के विषय में सामान्य विचार किया। फिर विशेष विचार किया। स्वप्न के अर्थ का निश्चय किया। आपस में एक दूसरे से विचार-परामर्श किया और स्वप्न के अर्थ को स्वयं जानकर एक-दूसरे से पूछकर, जिज्ञासा का समाधान कर और अर्थ का भलीभांति निर्णय करके, स्वप्नशास्त्र के मत को कहते हुए बल राजा से इस प्रकार कहा – 'देवानुप्रिय! हमने स्वप्नशास्त्र में बयालीस स्वप्न और तीस महास्वप्न सब मिलाकर बहत्तर स्वप्न देखे हैं। देवानुप्रिय! उनमें से तीर्थंकर की माताएँ तथा चक्रवर्ती की माताएँ जब तीर्थंकर या चक्रवर्ती गर्भ में आते हैं तो तीस महास्वप्नों में से ये चौदह महास्वप्न देखकर जागती हैं। यथा - १. हाथी २. बैल ३. सिंह ४. अभिषेक ५. पुष्पमाला ६. चन्द्र ७. सूर्य ८. ध्वजा ९. कलश १०. पद्मसरोवर ११. सागर १२. भवन अथवा विमान १३. रत्नराशि १४. निर्धूम अग्नि। इन चौदह महास्वप्नों में से वासुदेव की माता जब वासुदेव जब गर्भ में आते हैं तब कोई भी सात महास्वप्न देखकर जागृत होती हैं। जब बलदेव गर्भ में आते हैं, तब उनकी माताएँ इन चौदह महास्वप्नों में से कोई चार महास्वप्न देखती हैं। मांडलिक राजा के गर्भ में आने पर उसकी माता इन चौदह महास्वप्नों में से कोई एक महास्वप्न देखती हैं। देवानुप्रिय! प्रभावती देवी ने इनमें से एक महास्वप्न देखा है। देवानुप्रिय! इससे आपको अर्थलाभ होगा, देवानुप्रिय! भोगलाभ होगा, देवानुप्रिय! पुत्रलाभ होगा, देवानुप्रिय! राज्य का लाभ होगा, देवानुप्रिय! नौ मास और साढे सात दिन बीतने पर प्रभावती देवी आपके कुल में ध्वज के समान (यावत्) पुत्र को जन्म देगी और वह बालक भी बाल्यावस्था पारकर यावत् राज्यधिपति राजा होगा अथवा भावितात्मा अनगार होगा। अतएव हे देवानुप्रिय! प्रभावती देवी ने यह उदार स्वप्न देखा है यावत्, तुष्टि, दीर्घायुष्य और कल्याणकारी स्वप्न देखा है। १४. तए णं से बले राया सुविणलक्खणपाढगाणं अन्तिए एयमढं सोच्चा निसम्म हट्टतुटु करयल जाव कटु ते सुविणलक्खणपाढगे एवं वयासी - ‘एवमेयं, देवाणुप्पिया! जाव से जहेयं तुब्भे वयह' त्ति कटु तं सुविणं सम्मं पडिच्छइ, पडिच्छित्ता सुविणलक्खणपा-ढए विउलेणं असण-पाण-खाइम-साइम-पुष्फ-वत्थ-गन्ध-मल्लालंकारेणं सक्कारेइ संमाणेइ, संमाणित्ता विउलं जोवियारिहं पीइदाणं दलयइ, दलइत्ता पडिविसज्जेइ, पडिविसजित्ता सीहासणाओ अब्भुढेइ, अब्भुट्ठित्ता जेणेव पभावई देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पभावई देविं ताहिं इट्ठाहिं
SR No.003461
Book TitleAgam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size4 MB
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