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________________ [ ११३ वर्ग ५ : प्रथम अध्ययन ] संस्तरक आसन पर बैठकर पौषधव्रत ग्रहण करके विचरने लगा । तब उस निषध कुमार को रात्रि के पूर्व और अपर समय के संधिकाल में अर्थात् मध्यरात्रि में धार्मिक चिन्तन करते हुए इस प्रकार का आंतरिक विचार उत्पन्न हुआ 'वे ग्राम, आकर यावत् सन्निवेश निवासी धन्य हैं जहाँ अर्हत् अरिष्टनेमि प्रभु विचरण करते हैं तथा वे राजा, ईश्वर ( राजकुमार - युवराज ) यावत् सार्थवाह आदि भी धन्य हैं जो अरिष्टनेमि प्रभु को वन्दन - नमस्कार करते हैं यावत् पर्युपासना करने का अवसर प्राप्त करते हैं। यदि अर्हत् अरिष्टनेमि पूर्वानुपूर्वी से विचरण करते हुए, ग्रामानुग्राम गमन करते हुए, सुखपूर्वक चलते हुए यहाँ नन्दनवन में पधारें तो मैं उन अर्हत् अरिष्टनेमि प्रभु को वन्दन - नमस्कार करूंगा यावत् पर्युपासना करने का लाभ लूंगा ।' निषध कुमार की दीक्षा : देवलोकोत्पत्ति - १७. तए णं अरहा अरिट्ठनेमी निसढस्स कुमारस्स अयमेयारूवमज्झत्थियं जाव वियाणित्ता अट्ठारसहिं समणसहस्सेहिं जाव नन्दणवणे ........ । परिसा निग्गया । तणं निसढे कुमारे इमीसे कहाए लद्धट्ठे समाणे हट्ट० चाउग्घण्टेणं आसरहेणं निग्गये जहा जमाली, जाव अम्मापियरो आपुच्छित्ता पव्वइए, अणगारे जाए जाव गुत्तबम्भयारी । १७. तदनन्तर निषेध कुमार के यह और इस प्रकार के मनोगत विचार को जानकर अरिष्टनेमि अर्हत् अठारह हजार श्रमणों के साथ ग्राम-ग्राम आदि में गमन करते हुए यावत् नन्दनवन में पधारे और साधुओं के योग्य स्थान में आज्ञा - अनुमति लेकर विराजे । उनके दर्शन - वंदन आदि करने के लिये परिषद् निकली। तब निषध कुमार भी अरिष्टनेमि अर्हत् के पदार्पण के वृत्तान्त को जान कर हर्षित एवं परितुष्ट होता हुआ चार घंटों वाले अश्व रथ पर आरूढ होकर जमालि की तरह अपने वैभव के साथ दर्शनार्थ निकला, यावत् माता-पिता से आज्ञा - अनुमति प्राप्त करके प्रव्रजित हुआ। यावत् गुप्त ब्रह्मचारी अनगार हो गया। १८. तए णं से निसढे अणगारे अरहओ अरिट्ठणेमिस्स तहारूवाणं थेराणं अन्तिए सामाइयमाइयाइं एक्कारस अङ्गाई अहिज्जइ, २ बहूई चउत्थछट्ठ जाव विचित्तेहिं तवोकम्मेहिं अप्पा भावेमाणे बहुपडिपुण्णाई नववासाइं सामण्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता बायालीसं भत्ताई अणसणाए छेएइ, आलोइयपडिक्कन्ते समाहिपत्ते आणुपुव्वीए कालगए। १८. तत्पश्चात् उस निषध अनगार ने अर्हत् अरिष्टेनेमि प्रभु के तथारूप स्थविरों के पास सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और विविध प्रकार के चतुर्थभक्त, षष्ठभक्त यावत् विचित्र तप:कर्मों (तपसाधना ) से आत्मा को भावित करते हुए परिपूर्ण नौ वर्ष तक श्रमण पर्याय का पालन किया। वह श्रमण पर्याय को पालन करके बयालीय भोजनों को अनशन द्वारा त्याग कर आलोचन और प्रतिक्रमण करके समाधिपूर्वक कालधर्म को प्राप्त हुआ । १९. तणं से वरदत्ते अणगारे निसढं अणगारं कालगयं जाणित्ता जेणेव अरहा अरिट्ठणेमी, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जाव एवं वयासी 'एवं खलु देवाणुप्पियाणं अन्तेवासी निसढे -
SR No.003461
Book TitleAgam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size4 MB
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