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[ वह्निदशा
तंसि तारिसगंसि सयणिज्जसि सुमिणसणं, जाव उप्पिं पासायवरगए विहरइ।
तं एवं खलु वरदत्ता! निसढणं कुमारेणं अयमेयारूवे उराले मणुयइड्डी लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया।
'पभू णं भंते! निसढे कुमारे देवाणुप्पियाणं अन्तिए जाव पव्वइत्तए ?' हन्ता, पभू! से एवं भंते! इह वरदत्ते अणगारे जाव अप्पाणं भावमाणे विहरई।
तए णं अरहा अरिट्ठनेमी अन्नया कयाइ बारवईओ नयरीओ जाव बहिया जणवयविहारं विहरइ। निसढे कुमारे समणेवासाए जाए अभिगयजीवाजीवे जाव विहरइ।
१५. वह वीरांगद देव आयुक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय के अनन्तर उस देवलोक से च्यवन करके इसी द्वारवती नगरी में बलदेव राजा की रेवती देवी की कुक्षि में पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ।
__ उस समय रेवती देवी ने सुखद शय्या पर सोते हुए स्वप्न देखा, यथा समय बालक का जन्म हुआ, वह तरुणावस्था में आया, पाणिग्रहण हुआ यावत् उत्तम प्रासाद में भोग भोगते हुए यह निषध कुमार विचरण कर रहा है।
इस प्रकार, हे वरदत्त! इस निषध कुमार को यह और ऐसी उत्तम मनुष्यऋद्धि लब्ध, प्राप्त और अधिगत हुई है।
वरदत्त मुनि ने प्रश्न किया - भगवन्! क्या निषध कुमार आप देवानुप्रिय के पास यावत् प्रव्रजित होने के लिये समर्थ है ?
भगवान् अरिष्टनेमि ने कहा – हाँ वरदत्त! समर्थ है।
यह इसी प्रकार है - आपका कथन यथार्थ है भदन्त! इत्यादि कह कर वरदत्त अनगार अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे।
इसके बाद किसी एक समय अर्हत् अरिष्टनेमि द्वारवती नगरी से निकले यावत् बाह्य जनपदों में विचरण करने लगे। निषध कुमार जीवाजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता श्रमणोपासक हो गया यावत् (सुखपूर्वक) समय बिताने लगा। निषध कुमार का मनोरथ
१६. तए णं से निसढे कुमारे अन्नया कयाइ. जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता जाव दब्भसंथारोवगए विहरइ। तए णं तस्स निसढस्स कुमारस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि - 'धन्ना णं ते गामागर जाव संनिवेसा जत्थ णं अरहा अरि?णेमी विहरइ। धन्ना णं ते राईसर जाव सत्थवाहप्पभिईओ जे णं अरिट्ठणेमिं वंदन्ति, नमसंति जाव पज्जुवासंति। जइ णं अरहा अरिट्ठणेमी पुव्वाणुपुब् ि ... नन्दणवणे विहरेज्जा, तए णं अहं अरहं अरिट्ठणेमिं वन्दिज्जा जाव पज्जुवासिज्जा।'
१६. तत्पश्चात् किसी समय जहाँ पौषधशाला थी वहाँ निषध कुमार आया। आकर घास के