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________________ ११४] [ वह्निदशा नाम अणगारे पगइभद्दए जाव विणीए। से णं भन्ते! निसढे अणगारे कालमासे कालं किच्चा कहिं गए, कहिं उववन्ने ?' 'वरदत्ता' इ अरहा अरिढणेमी वरदत्तं अणगारं एवं वयासी - ‘एवं खल, वरदत्ता, ममं अन्तेवासी निसढे नामं अणगारे पगइभद्दे जाव विणीए ममं तहारूवाणं थेराणं अन्तिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अङाई अहिन्जित्ता बहपडिपण्णाई नव वासाडं सामण्णपरियागं पाउणित्ता बायालीसं भत्ताई अणसणाए छेइत्ता आलोइयपडिक्कन्ते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उर्दू चन्दिमसूरियगहनक्खत्ततारारूवाणं सोहम्मीसाण जाव अच्चुते तिण्णि य अट्ठारसुत्तरे गेविजविमाणावाससए वीइवइत्ता सव्वट्ठसिद्धविमाणे देवत्ताए उववन्ने। तत्थ णं देवाणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता। तत्थ णं निसढस्स वि देवस्स तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता।' १९. तब वरदत्त अनगार निषध कुमार को कालगत जानकर अर्हत् अरिष्टनेमि प्रभु के पास आए यावत् इस प्रकार निवेदन किया - देवानुप्रिय! प्रकृति से भद्र यावत् विनीत जो आपका शिष्य निषध अनगार था वह काल मास में काल (मरण) को प्राप्त होकर कहाँ गया है? कहाँ उत्पन्न हुआ है ? - अर्हत् अरिष्टनेमि ने 'वरदत्त!' इस प्रकार से संबोधित-आमंत्रित कर वरदत्त अनगार से कहा'हे भदन्त! प्रकृति से भद्र यावत् विनीत मेरा अन्तेवासी निषध नामक अनगार मेरे तथारूप स्थविरों से सामायिक आदि से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन करके, नौ वर्ष तक श्रामण्य पर्याय में रहकर, अनशन द्वारा बयालीस भोजनों का त्याग करके आलोचन-प्रतिक्रमण पूर्वक समाधिस्थ हो, मरणावसर पर मरण करके ऊर्ध्वलोक में, चन्द्र-सूर्य-ग्रह-नक्षत्र-तारारूप ज्योतिष्क देवं विमानों, सौधर्म-ईशान आदि अच्युत देवलोकों का तथा तीन सौ अठारह गैवेयक विमानों का अतिक्रमण करके अर्थात् इनसे भी ऊपर सर्वार्थसिद्ध विमान में देवरूप से उत्पन्न हुआ है। वहाँ पर देवों की तेतीस सागरोपम की स्थिति कही गई है। निषधदेव की स्थिति भी तेतीस सागरोपम की है।' निषध का मुक्तिगमन २०. 'से णं भन्ते! निसढे देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणन्तरं चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिइ, कहिं उववजिहिइ ?' वरदत्ता! इहेव जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे उन्नाए नगरे विसुद्धपिइवंसे रायकुले पुत्तत्ताए पच्चायाहिइ। तए णं से उम्मुक्कबालभावे विनयपरिणयमेत्ते जोव्वणगमणुप्पत्ते तहारूवाणं थेराणं अन्तिए केवलबोहिं बुज्झित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वजिहिइ। से णं तत्थ अणगारे भबिस्सइ इरियासमिए जाव गुत्तबम्भयारी। से णं तत्थ बहूई चउत्थछट्ठमदसमदुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं विचित्तेहि तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे बहूई वासाई सामण्णपरियागं पाउणिस्सइ, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसिहिइ, झूसित्ता सर्टि भत्ताइं अणसणाए छेइहिइ, जस्सट्टाए कीरइ नग्गभावे मुण्डभावे अण्हाणए जाव अदन्तवणए अच्छत्तए अणोवाहणाए फलहसेज्जा कट्ठसेज्जा केसलोए बम्भचेरवासे परघरपवेसे पिण्डवाओ लद्धावलद्धे उच्चावया य गामकण्टगा अहियासिज्जइ,
SR No.003461
Book TitleAgam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size4 MB
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