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________________ वर्ग ५ : प्रथम अध्ययन ] [१०७ ७. उस रैवतक पर्वत से न अधिक दूर और न अधिक समीप किन्तु यथोचित स्थान पर नन्दनवन नामक एक उद्यान था। वह सर्व ऋतुओं संबंधी पुष्पों और फलों से समृद्ध, रमणीय नन्दनवन के समान आनन्दप्रद, दर्शनीय, मनमोहक और मन को आकर्षित करने वाला था। उस नन्दनवन उद्यान के अति मध्य भाग में सुरप्रिय नामक यक्ष का यक्षायतन था। वह अति पुरातन था यावत् बहुत से लोग वहाँ आ-आकर सुरप्रिय यक्षायतन की अर्चना करते थे। यक्षायतन का वर्णन औपपातिक सूत्र के अनुसार समझ लेना चाहिये। वह सुरप्रिय यक्षायतन पूर्णभद्र चैत्य के समान चारों ओर से एक विशाल वनखंड से पूरी तरह घिरा हुआ था, इत्यादि वर्णन भी औपपातिक सूत्र के समान जान लेना चाहिये। यावत् उस वनखण्ड में एक पृथ्वीशिलापट्ट था। द्वारिका नगरी में कृष्ण वासुदेव, बलदेव ८. तत्थ णं बारवईए नयरीए कण्हे नामं वासुदेवे राया परिवसइ। से णं तत्थ समुद्दविजयपामोक्खाणं दसण्हं दसाराणं, बलदेवपामोक्खाणं पञ्चण्डं महावीराणं, उग्गसेणपामोक्खाणं सोलसण्हं राईसाहस्सीणं, पज्जुण्णपामोक्खाणं अद्भुट्ठाणं कुमारकोडीणं, सम्बपामोक्खाणं सट्ठीदुद्दन्तसाहस्सीणं, वीरसेणपामोक्खाणं एक्कवीसाए वीरसाहस्सीणं, रुप्पिणिपामोक्खाणं सोलसण्हं देवीसाहस्सीणं, अणङ्गसेणापामोक्खाणं अणेगाणं गणियासाहस्सीणं अनेसिं च बहूणं राईसर जाव सत्थवाहप्पभिईणं वेयड्डगिरिसागरमेरागस्स दाहिणड्ढभरहस्स आहेवच्चं जाव विहरइ। तत्थ णं बारवईए नयरीए बलदेवे नामं राया होत्था, महया जाव रजं पसासेमाणे विहरइ। तस्स णं बलदेवस्स रन्नो रेवई नामं देवी होत्था सोमाला जाव विहरइ। तए णं सा रेवई देवी अन्नया कयाइ तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि जाव सीहं सुमिणे पासित्ताणं ..", एवं सुमिणदंसणपरिकहणं, कलाओ जहा महाबलस्स, पन्नासओ दाओ, पन्नासरायकन्नगाणं एगदिवसेणं पाणिग्गहणं ... नवरं निसढे नामं, जाव उणिं पासायं विहरइ। ८. उस द्वारका नगरी में कृष्ण नामक वासुदेव राजा निवास करते थे। वे वहाँ समुद्रविजय आदि दस दसारों का, बलदेव आदि पांच महावीरों का, उग्रसेन आदि सोलह हजार राजाओं का, प्रद्युम्न आदि साढ़े तीन करोड़ कुमारों का, शाम्ब आदि साठ हजार दुर्दान्त योद्धाओं का, वीरसेन आदि इक्कीस हजार वीरों का, रुक्मिणी आदि सोलह हजार रानियों का, अनंगसेना आदि अनेक सहस्र गणिकाओं का तथा इनके अतिरिक्त अन्य बहुत से राजाओं, ईश्वरों यावत् तलवरों, माडंबिकों, कौटुम्बिकों, इभ्यों, श्रेष्ठियों, सेनापतियों, सार्थवाहों वगैरह का उत्तर दिशा में वैताढ्य पर्वत पर्यन्त तथा अन्य तीन दिशाओं में लवण समुद्र पर्यन्त दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र का तथा द्वारका नगरी का अधिपतित्व, नेतृत्व, स्वामित्व, भट्टित्व, महत्तरकत्व आज्ञैश्वर्यत्व और सेनापतित्व करते हुए उनका पालन करते हुए, उन पर प्रशासन करते हुए विचरते थे।
SR No.003461
Book TitleAgam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size4 MB
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