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________________ १०६ ] [ वह्निदशा जोयणायामा धणवइमइनिम्मिया चामीयरपवरपागार-नाणामणि-पञ्चवण्णकविसीसगसोहिया अलयापुरीसंकासा पमुइयपक्कीलिया पच्चक्खं देवलोयभूया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। ५. हे जम्बू! उस काल और उस समय में द्वारवती -(द्वारका) नाम की नगरी थी। वह पूर्वपश्चिम में बारह योजन लम्बी और उत्तर-दक्षिण में नौ योजन चौड़ी थी, अर्थात् उसकी चौड़ाई नौ योजन और लम्बाई बारह योजन की थी। उसका निर्माण स्वयं धनपति (कुबेर) ने अपने मतिकौशल से किया था। स्वर्णनिर्मित श्रेष्ठ प्राकार (परकोटा) और पंचरंगी मणियों के बने कंगूरों से वह शोभित थी। अलकापुरी – इन्द्र की नगरी के समान सुन्दर जान पड़ती थी। उसके निवासीजन प्रमोदयुक्त एवं क्रीड़ा करने में तत्पर रहते थे। वह साक्षात् देवलोक सरीखी प्रतीत होती थी। मन को प्रसन्न करने वाली, दर्शनीय, अभिरूप एवं प्रतिरूप थी। रैवतक पर्वत ६. तीसे णं बारवईए नयरीए बहिया उत्तरपुरथिमे दिसीभाए एत्थ णं रेवए नामं पव्वए होत्था-तुले गयणतलमणुलिहन्तसिहरे नाणाविहरुक्ख-गच्छ-गुम्म-लया-वल्लीपरिगया-भिरामेहंसमिय-मयूर-कोञ्च-सारस-काग-मयणसाल-कोइल-कु लाववेए . तडकडगवियरउब्झरपवायपब्भारसिहरपउरे अच्छरगण-देवसंघ-विज्जाहर-मिहुण-संनिचिण्णे निच्चच्छणए दसारवरवीरपुरिसतेल्लोक्कबलयगाणं सोमे सुभए पियदंसणे सुरूवे पासादीए (जाव) पडिरूवे। ६. उस द्वारका नगरी के बाहर उत्तरपूर्वदिशा-ईशान कोण में रैवतक नामक पर्वत था। वह बहुत ऊँचा था और उसके शिखर गगनतल को स्पर्श करते थे। वह नाना प्रकार के वृक्षों, गुच्छों, गुल्मों, लताओं और वल्लियों से व्याप्त था। हंस, मृग, मयूर, क्रौंच, सारस, चक्रवाक, मदनसारिका (मैना) और कोयल आदि पशु-पक्षियों के कलरव से गुंजता रहता था। उसमें अनेक तट, मैदान और गुफाएँ थीं। झरने, प्रपात, प्राग्भार (कुछ-कुछ नमे हुए गिरिप्रदेश) और शिखर थे। वह पर्वत अप्सराओं के समूहों, देवों के समुदायों, चारणों और विद्याधरों के मिथुनों (युगलों) से व्याप्त रहता था। तीनों लोकों में बलशाली माने जाने वाले दसारवंशीय वीर पुरुषों द्वारा नित्य नये-नये उत्सव मनाए जाते थे। वह पर्वत सौम्य, सुभग, देखने में प्रिय, सुरूप, प्रासादिक, दर्शनीय, मनोहर और अतीव मनोरम था। नन्दनवन उद्यान, सुरप्रिय यक्षायतन ७. तत्थ णं रेवयगस्स पव्वयस्स अदूरसामन्ते एत्थ णं नन्दणवणे नामं उज्जाणे होत्था सव्वोउयपुष्फफलसमिद्धे रम्मे नन्दणवणप्पगासे पासादीए जाव दरिसणिज्जे। तस्स णं नन्दणवणे उज्जाणे सुरप्पियस्स जक्खस्स जक्खाययणे होत्था-चिराईए (जाव) बहुजणो आगम्म अच्चेइ सुरप्पियं जक्खाययणं। से णं सुरप्पिए जक्खाययणे एगेणं महया वणसण्डेणं सव्वओ समन्ता संपरिक्खित्ते जहा पुण्णभद्दे जाव सिलावट्टए।
SR No.003461
Book TitleAgam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size4 MB
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