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[ पुष्पिका
उपाश्रय में आएगी। आकर सुव्रता आर्याओं को वंदन-नमस्कार करके उनकी पर्युपासना करेंगी।
तत्पश्चात् वे सुव्रता आर्या उस सोमा ब्राह्मणी को 'कर्म से जीव बद्ध होते हैं – संसार में परिभ्रमण करते हैं " इत्यादि रूप विचित्र केवलिप्ररूपित धर्मोपदेश देंगी। तब वह सोमा ब्राह्मणी उन सुव्रता आर्या से बारह प्रकार के श्रावक धर्म को स्वीकार करेगी और फिर सुव्रता आर्या को वंदननमस्कार करेगी। वंदन-नमस्कार करके जिस दिशा से आई थी वापिस उसी ओर लौट जायेगी।
तत्पश्चात् सोमा ब्राह्मणी श्रमणोपासिका (श्राविका) हो जायेगी। तब वह जीव-अजीव पदार्थों के स्वरूप की ज्ञाता, पुण्य-पाप के भेद की जानकार, आस्रव-संवर-निर्जरा-क्रिया-अधिकरण (सावध प्रवृत्ति करने के मूल कारण) तथा बंध-मोक्ष के स्वरूप को समझने में निष्णात-कुशल, परतीर्थियों के कुतर्कों का खण्डन करने में स्वयं समर्थ (दूसरों की सहायता की अपेक्षा न रखने वाली) होगी। देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड़ गंधर्व महोरग आदि देवता भी उसे निर्ग्रन्थप्रवचन से विचलित नहीं कर सकेंगे। निर्ग्रन्थ प्रवचन पर शंका आदि अतिचारों से रहित श्रद्धा करेगी। आत्मोत्थान के सिवाय अन्य कार्यों में उसकी आकांक्षा-अभिलाषा नहीं रहेगी अथवा अन्य मतों के प्रति उसका लगाव नहीं रहेगा। धार्मिक-आध्यात्मिक सिद्धान्तों के आशय के प्रति उसे संशय नहीं रहेगा। लब्धार्थ (गुरुजनों से यथार्थ तत्त्व का बोध प्राप्त करना) गृहीतार्थ, विनिश्चितार्थ (निश्चित रूप से अर्थ को आत्मसात करना) होने से उसकी अस्थि और मज्जा तक अर्थात रग-रग धर्मानराग से अनुरंजित (व्याप्त) हो जायेगी। इसलिये वह दूसरों को संबोधित करते हुये उद्घोषणा करेगी - आयुष्मन् ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही अर्थ-प्रयोजनभूत है, परमार्थ है, इसके सिवाय अन्यतीर्थिकों का कथन कुगति-प्रापक होने से अनर्थ-अप्रयोजनभूत है। असद् विचारों से विहीन होने के कारण उसका हृदय स्फटिक के समान निर्मल होगा, निर्ग्रन्थ श्रमण भिक्षा के लिये सुगमता से प्रवेश कर सकें, अतः उसके घर का द्वार सर्वदा खुला होगा। सभी के घरों यहाँ तक कि अन्तःपुर तक में उसका प्रवेश शंकारहित होने से प्रीतिजनक होगा। चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णमासी को परिपूर्ण पौषधव्रत का सम्यक् प्रकार से परिपालन करते हुये श्रमण-निर्ग्रन्थों को प्रासुक एषणीय-निर्दोष आहार, पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक-आसन, वस्त्र, पात्र, कंबल रजोहरण, औषध, भेषज से प्रतिलाभित करती हुई एवं यथाविधि ग्रहण किये हुये विविध प्रकार के शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान, पौषधोपवासों से आत्मा को भावित करती हुई रहेगी।
तत्पश्चात् वे सुव्रता आर्या किसी समय विभेल संनिवेश से निकलकर-विहारकर बाह्य जनपदों में विचरण करेंगी।
विवेचन – पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत, ये दोनों मिलकर श्रावक धर्म के बारह प्रकार हैं। इनमें से अणुव्रत श्रावक के मूलव्रत हैं और शिक्षाव्रत उनको पुष्ट बनाने वाले रक्षक व्रत हैं। इनकी सहायता, अभ्यास आदि से अणुव्रतों का सम्यक् प्रकार से पालन होता है और उनमें स्थिरता आती है।
अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, स्वदार-संतोषव्रत और परिग्रहपरिमाणव्रत, ये पांच अणुव्रत १. धर्मोपदेश के विस्तृत वर्णन के लिये औपपातिकसूत्र (श्री आगम-प्रकाशन-समिति, ब्यावर) पृष्ठ १०८ देखिये।