SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७६ ] [ पुष्पिका पर अंजलि करके वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके उसने कहा- देवानुप्रियो! मैं निर्ग्रन्थप्रवचन पर श्रद्धा करती हूँ, विश्वास करती हूँ, रुचि रखती हूँ। आपने जो उपदेश दिया है, वह तथ्य है, सत्य है, अवितथ है। यावत् मैं श्रावकधर्म को अंगीकार करना चाहती हूँ। आर्यिकाओं ने उत्तर दिया – देवानुप्रिये! जैसा तुम्हें अनुकूल हो, अथवा जिस प्रकार तुम्हें सुख हो वैसा करो किन्तु प्रमाद मत करो। तत्पश्चात् सुभद्रा सार्थवाही ने उन आर्यिकाओं से श्रावकधर्म अंगीकार किया। अंगीकार करके उन आर्यिकाओं को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके उन्हें विदा किया। तत्पश्चात् वह सुभद्रा सार्थवाही श्रमणोपासिका होकर श्रावकधर्म पालती हुई यावत् विचरने लगी। सुभद्रा को दीक्षा का संकल्प ३६. तए णं तीसे सुभदाए समणोवासियाए अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुटुम्बजागरियं जागरमाणीए अयमेयारूवे अज्झथिए (जाव) समुष्पजित्था – ‘एवं खलु अहं भदेणं सत्थवाहेणं विउलाई भोगभोगाइं जाव विहरामि, नो चेव णं अहं दारगं वा ...। तं सेयं खलु ममं कल्लं जाव जलन्ते भद्दस्स आपुच्छित्ता सुब्बयाणं अजाणं अन्तिए अज्जा भवित्ता अगाराओ (जाव) पव्वइत्तए' एवं संपेहेइ, संपेहित्ता जेणेव भद्दे सत्थवाहे तेणेव उवागया, करयल (जाव) एवं वयासी - ‘एवं खलु अहं, देवाणुप्पिया! तुब्भेहिं सद्धिं बहूई वासाइं विउलाई भोगभोगाइं (जाव) विहरामि, नो चेव णं दारगं वा दारियं वा पयायामि। तं इच्छामि णं, देवाणुप्पिया! तुब्भेहिं अणुन्नाया समाणी सुव्वयाणं अजाणं (जाव) पव्वइत्तए।' ३६. इसके बाद उस सुभद्रा श्रमणोपासिका को किसी दिन मध्यरात्रि के समय कौटुम्बिक स्थिति पर विचार करते हुए इस प्रकार का आन्तरिक मनःसंकल्प यावत् विचार समुत्पन्न हुआ। – 'मैं भद्र सार्थवाह के साथ विपुल भोगोपभोगों को भोगती हुई समय व्यतीत कर रही हूँ किन्तु मैंने अभी तक एक भी दारक या दारिका को जन्म नहीं दिया है। अतएव मुझे यह उचित है कि मैं कल यावत् जाज्वल्यमान तेज सहित सूर्य के प्रकाशित होने पर भद्र सार्थवाह से अनुमति लेकर सुव्रता आर्यिका के पास गृहत्याग कर यावत् प्रव्रजित हो जाऊँ। उसने इस प्रकार का संकल्प किया - विचार किया। विचार करके जहां भद्र सार्थवाह था, वहां आई। आकर दोनों हाथ जोड़कर यावत् इस प्रकार बोली - देवानुप्रिय! तुम्हारे साथ बहुत वर्षों से विपुल भोगों को भोगती हुई समय बिता रही हूँ, किन्तु एक भी बालक या बालिका को जन्म नहीं दिया है। अब मैं आप देवानुप्रिय की अनुमति प्राप्त करके सुव्रता आर्यिका के पास यावत् प्रव्रजित-दीक्षित होना चाहती हूँ।' ३७. तए णं से भद्दे सत्थवाहे सुभई सत्थवाहिं एवं वयासी - ___'मा णं तुमं देवाणुप्पिए, मुण्डा (जाव) पव्वयाहि। भुजाहि ताव देवाणुप्पिए, मए सद्धिं विउलाई भोगभोगाइं, तओ पच्छा भुत्तभोई सुव्वयाणं अजाणं (जाव) पव्वयाहि।'
SR No.003461
Book TitleAgam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy