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वर्ग ३ : चतुर्थ अध्ययन ]
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सुभद्रा सार्थवाही ने उन आर्यिकाओं को आते हुए देखा। देख कर वह हर्षित और संतुष्ट होती हुई शीघ्र ही अपने आसन से उठ कर खड़ी हुई । खड़ी होकर सात-आठ डग उनके सामने गई और वन्दन - नमस्कार किया । फिर विपुल अशन, पान, खदिम, स्वादिम आहार से प्रतिलाभित कर इस प्रकार कहा
आर्याओ ! मैं भद्र सार्थवाह के साथ विपुल भोगोपभोग भोग रही हूँ, मैंने आज तक एक भी संतान को प्रसव नहीं किया है। वे माताएँ धन्य हैं, पुण्यशालिनी हैं (जो संतान का सुख भोगती हैं ) यावत् मैं अधन्या पुण्यहीना हूँ कि उनमें से एक भी सुख प्राप्त नहीं कर सकी हूँ ।
देवानुप्रियो ! आप बहुत ज्ञानी हैं, बहुत पढ़ी-लिखी हैं और बहुत से ग्रामों, आकरों, नगरों यावत् देशों में घूमती हैं। अनेक राजा, ईश्वर, तलवर यावत् सार्थवाह आदि के घरों में भिक्षा के लिये प्रवेश करती हैं। तो क्या कहीं कोई विद्याप्रयोग, मंत्रप्रयोग, वमन, विरेचन, वस्तिकर्म, औषध अथवा भेषज ज्ञात किया है, देखा-पढ़ा है जिससे मैं बालक या बालिका का प्रसव कर सकूं ?
३४. तए णं ताओ अज्जाओ सुभद्दं सत्थवाहिं एवं वयासी 'अम्हे णं देवाणुप्पिये! समणीओ निग्गन्थीओ इरियासमियाओ ( जाव ) गुत्तबम्भयारिणीओ । नो खलु कप्पइ अम्हं एयमट्ठ कण्णेहि वि निसामेत्तए किमङ्ग पुण उद्दिसित्तए वा समायरित्तए वा ? अम्हे णं देवाणुप्पिए । नवरं तव विचित्तं केवलिपन्नत्तं धम्मं परिकहेमो । '
३४. सुभद्रा का कथन सुन कर उन आर्यिकाओं ने सुभद्रासार्थवाही से इस प्रकार कहादेवानुप्रिय ! हम ईर्यासमिति आदि समितियों से समित, तीन गुप्तिओं से गुप्त इन्द्रियों को वश में करने वाली गुप्त ब्रह्मचारिणी निग्रन्थ- श्रमणिएँ हैं । हम को ऐसी बातों को सुनना भी नहीं कल्पता है तो फिर हम इनका उपदेश अथवा आचरण कैसे कर सकती हैं ? किन्तु देवानुप्रिये ! हम तुम्हें केवलिप्ररूपित दान शील आदि अनेक प्रकार का धर्मोपदेश सुना सकती हैं।
आर्याओं का उपदेश : सुभद्रा का श्रमणोपासिका व्रत ग्रहण
३५. तए णं सा सुभद्दा सत्थवाही तासिं अजाणं अन्तिए धम्मं सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठा ताओ अजाओ तिक्खुत्तो वन्दइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी 'सहामि णं अज्जाओ! निग्गन्थं पावयणं, पत्तियामि रोएमि णं अज्जाओ! निग्गंथं पावयणं .... । एवमेयं तहमेयं अवितहमेयं, ' (जाव) सावगधम्मं पडिवज्जए ।
'अहासुहं देवाणुप्पिए, मा पडिबन्धं करेह ।'
तणं सा सुभद्दा सत्थवाही तासिं अज्जाणं अन्तिए ( जाव ) पडिवज्जइ, पडिवज्जित्ता ताओ अज्जाओ वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता पडिविसज्जेइ । तए णं सा सुभद्दा सत्थवाही समणोवासिया जाया, जाव विहरइ ।
३५. इसके बाद उन आर्यिकाओं से धर्मश्रवण कर उसे अवधारित कर उस सुभद्रा सार्थवाही ने हृष्ट-पुष्ट हो उन आर्याओं को तीन बार आदक्षिण - प्रदक्षिण की। दोनों हाथ जोड़कर आवर्तपूर्वक मस्तक