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[ पुष्पिका
पुण्यहीन हूँ कि संतान संबंधी एक भी सुख मुझे प्राप्त नहीं है।' इस प्रकार के विचारों से निरुत्साह - भग्नमनोरथ होकर यावत् आर्तध्यान करने लगी। सुव्रता आर्या का आगमन
३२. तेणं कालेणं तेणं समएणं सुव्वयाओ णं अजाओ इरियासमियाओ भासासमियाओ एसणासमियाओ आयाणभण्डमत्तनिक्खेवणासमियाओ उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाणपारिट्ठावणासमियाओ मणगुत्तीओ वयगुत्तीओ कायगुत्तीओ गुत्तिन्दियाओ गुत्तबम्भयारिणीओ बहुस्सुयाओ बहुपरिवाराओ पुव्वाणुपुल्विं चरमाणीओ गामाणुगामं दूइज्जमाणीओ जेणेव वाणारसी नयरी, तेणेव उवागयाओ उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणीओ विहरन्ति।
३२. उस काल और उस समय में ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदान-भांडमात्रनिक्षेपणा-समिति, उच्चार-प्रस्रवण-श्लेष्म-सिंघाणपरिष्ठापना-समिति से समित, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति एवं कायगुप्ति से युक्त, इन्द्रियों का गोपन करने वाली (इन्द्रियों का दमन करने वाली) गुप्त ब्रह्मचारिणी बहुश्रुता (बहुत से शास्रों में निष्णात), शिष्याओं के बहुत बड़े परिवार वाली सुव्रता नाम की आर्या पूर्वानुपूर्वी क्रम (तीर्थंकर परंपरा के अनुरूप) से चलती हुई, ग्रामानुग्राम में विहार करती हुई जहाँ वाराणसी नगरी थी, वहाँ आई। आकर कल्पानुसार यथायोग्य अवग्रह-आज्ञा लेकर संयम और तप से आत्मा को परिशोधित करती हुई विचरने लगी। सुभद्रा की जिज्ञासा : आर्याओं का उत्तर
तए णं तासिं सुव्वयाणं अजाणं एगे संघाडए वाणारसी नयरीए उच्चनीयमज्झिमाइं कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे भद्दस्स सत्थवाहस्स गिहं अणुप्पविठे। तए णं सुभद्दा सत्थवाही ताओ अजाओ एजमाणीओ पासइ, पासित्ता हट्ट० खिप्पामेव आसणाओ अब्भुढेइ, अब्भुट्टित्ता सत्तट्ठ पयाई अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता विउलेणं असणपाणखाइमसाइमेण पडिलाभेत्ता एवं वयासी -
"एवं खलु अहं, अजाओ, भद्देणं सत्थवाहेणं सद्धिं विउलाई भोगभोगाई भुञ्जमाणी विहरामि, नो चेव णं अहं दारगं वा दारिगं वा पयायामि। तं धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ, (जाव) एत्ता एगमवि न पत्ता।
तं तुब्भे, अजाओ, बहुणायाओ बहुपढियाओ बहूणि गामागरनगर० (जाव) संनिवेसाई आहिण्डह, बहूणं राईसरतलवर० (जाव) सत्थवाहप्पभिईणं गिहाइं अनुपविसह, अत्थि से केइ कहिंचि विजापओए वा मन्तप्पओए वा वमणं वा विरेयणं वावत्थिकम्मं वा ओसहे वा भेसज्जे वा उवलद्धे, जेणं अहं दारगं वा पयाएज्जा।'
३३. तदनन्तर उन सुव्रता आर्या का एक संघाड़ा वाराणसी नगरी के सामान्य, मध्यम और उच्च कुलों में सामुदायिक भिक्षाचर्या के लिये परिभ्रमण करता हुआ भद्र सार्थवाह के घर में आया। तब उस