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________________ वर्ग ३ : चतुर्थ अध्ययन ] [ ७७ ___तए णं सुभद्दा सत्थवाही भद्दस्स एयमढं नो परियाणइ। दोच्चं पि तच्चं पि सुभद्दा सत्थवाही भदं सत्थवाहं एवं वयासी – 'इच्छामि णं देवाणुप्पिया! तुब्भेहिं अब्भणुनाया समाणी (जाव) पव्वइत्तए।' तए णं से भद्दे सत्थवाहे, जाहे नो संचाएइ बहूहिं आघवणाहि य, एवं पन्नवणाहि य सन्नवणाहि य विनवणाहि य आघवित्तए वा (जाव) पन्नवित्तए वा, सन्नवित्तए वा विनवित्तए वा, ताहे अकामए चेव सुभद्दाए निक्खमणं अणुमन्नित्था। ३७. तब भद्र सार्थवाह ने सुभद्रा सार्थवाही से इस प्रकार कहा – देवानुप्रिये! तुम अभी मुंडित होकर यावत् गृहत्याग करके प्रव्रजित मत होओ, मेरे साथ विपुल भोगोपभोगों का भोग करो और भोगों को भोगने के पश्चात् सुव्रता आर्या के पास मुण्डित होकर यावत् गृहत्याग कर अनगार प्रव्रज्या अंगीकार करना। भद्र सार्थवाह के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर भी सुभद्रा सार्थवाही ने भद्र सार्थवाह के वचनों का आदर नहीं किया - उन्हें स्वीकार नहीं किया। दूसरी बार और फिर तीसरी बार भी सुभद्रा सार्थवाही ने भद्र सार्थवाह से यही कहा - देनानुप्रिय! आपकी आज्ञा - अनुमति लेकर मैं सुव्रता आर्या के पास प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहती हूँ। ____ जब भद्र सार्थवाह अनुकूल और प्रतिकूल बहुत सी युक्तियों, प्रज्ञप्तियों, संज्ञप्तियों और विज्ञप्तियों से उसे समझाने-बुझाने, संबोधित करने और मनाने में समर्थ नहीं हुआ तब इच्छा न होने पर भी लाचार होकर सुभद्रा को दीक्षा लेने की आज्ञा दे दी। दीक्षाग्रहण तए णं से भद्दे सत्थवाहे विउलं असणं ४ उवक्खडावेइ। मित्तनाइ० तओ पच्छा भोयण वेलाए (जाव) मित्तनाइ सक्कारेइ संमाणेइ। सुभदं सत्थवाहिं हायं (जाव) पायच्छित्तं सव्वालंकारविभूसियं पुरिससहस्सवाहिणिं सीयं दुरूहेइ। तओ सा सुभद्दा सत्थवाही मित्तनाइ ... (जाव) संबन्धिसंपरिवुडा सव्विड्ढीए (जाव) रवेणं वाणारसीनयरीए मझमझेणं जेणेव सुव्बयाणं अजाणं उवस्सए, तेणेव उवागच्छंइ, उवागच्छित्ता पुरिससहस्सवाहिणिं सीयं ठवेइ, सुभई सत्थवाहिं सीयाओ पच्चेरुहेइ। तए णं से भद्दे सत्थवाहे सुभई सत्थवाहिं पुरओ काउं जेणेव सुव्वया अज्जा, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुव्वयाओ अजाओ वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी ___ एवं खलु देवाणुप्पिया! सुभद्दा सत्थवाही ममं भारिया इट्ठा कन्ता, (जाव) मा णं वाइया पित्तिया सिम्भिया संनिवाइया विविहा रोहातङ्का फुसन्तु। एस णं, देवाणुप्पिया! संसारभउव्विग्गा, भीया जम्ममरणाणं, देवाणुप्पियाणं अन्तिए मुण्डा भवित्ता (जाव) पव्वयाइ। तं एवं अहं देवाणुप्पियाणं सीसिणिभिक्खं दलयामि। पडिच्छन्तु णं, देवाणुप्पिया! सीसिणिभिक्खं।'
SR No.003461
Book TitleAgam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size4 MB
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