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________________ कहना अधिक यथार्थ है । वर्तमान में जो भूगोल पढ़ाया जाता है, वह विद्यार्थी को भौतिकता की ओर ले जाता है। वे केवल ससीम की व्याख्या करता है। वह असीम की व्याख्या करने में असमर्थ है। उसमें स्वरूपबोध का ज्ञान नहीं है जबकि महामनीषियों द्वारा प्रतिपादित भूगोल में अनन्तता रही हुई है, जो हमें बाहर से भीतर की ओर झांकनें को उत्प्रेरित करती है। ___ जो भी आस्तिक दर्शन है जिन्हें आत्मा के अस्तित्व पर विश्वास है, वे यह मानते है कि आत्मा कर्म के कारण इस विराट विश्व में परिभ्रमण कर रहा है। हमारी जो यात्रा चल रही है, उसका नियामक तत्त्व कर्म है। वह हमें कभी स्वर्गलोक की यात्रा कराता है तो कभी नरकलोक की, कभी तिर्यञ्चलोक की तो कबी मानवलोक की उस यात्रा का परिज्ञान करना या कराना ही जैन भूगोल का उद्देश्य रहा है । आत्मा शाश्वत है, कर्म भी शाश्वत है और धार्मिक भूगोल भी शाश्वत है। क्योंकि आत्मा का वह परिभ्रमण स्थान है। जो आत्मा और कर्मसिद्धान्त को नहीं जानता वह धार्मिक भूगोल को भी नहीं जान सकता। आज कहीं पर अतिवृष्टि का प्रकोप है, कही पर अल्पवृष्टि है, कहीं पर अनावृष्टि है, कहीं पर भूकम्प आ रहे है तो कहीं पर समुद्री तूफान और कहीं पर धरती लावा उगल रही है, कहीं दुर्घटनाएं हैं। इन सभी का मूल कारण क्या है, इसका उत्तर विज्ञान के पास नहीं है। केवल इन्द्रियगम्य ज्ञान से इन प्रश्नों का समाधान नहीं हो सकता। इन प्रश्नों का समाधान होता है-महामनीषियों के चिन्तन से, जो हमें धरोहर के रूप में प्राप्त है। जिस पर इन्द्रियगम्य ज्ञान ससीम होने से असीम संबंधी प्रश्नों का समाधान उसके पास नहीं है। इन्द्रियगम्य ज्ञान विश्वसनीय इसलिये माना जाता है कि वह हमें साफ-साफ दिखलाई देता है। आध्यात्मिक ज्ञान असीम होने के कारण उस ज्ञान को प्राप्त करने के लिये आत्मिक क्षमता का पूर्ण विकास करना होता है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का वर्णन इस दृष्टि से भी बहुत ही उपयोगी है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की प्रस्तावना मैंने बहुत ही संक्षेप में लिखी है। अनेक ऐसे बिन्दु जिनकी विस्तार से चर्चा की जा सकती थी, उन बिन्दुओं पर समयाभाव के कारण चर्चा नहीं कर सका हूँ। मैं सोचता हूँ कि मूल आगम में वह चर्चा बहुत ही विस्तार से आई है अतः जिज्ञासु पाठक मूल आगम का पारायण करें, उनको बहुत कुछ नवीन चिन्तन-सामग्री प्राप्त होगी। पाठक को प्रस्तुत अनुवाद मूल आर्गम की तरह ही रसप्रद लगेगा। मैं डॉ. शास्त्री महोदय को साधुवाद प्रदान करूंगा कि उन्होंने कठिन श्रम कर भारती के भण्डार में अनमोल उपहार समर्पित किया है, वह युग-युग तक जन-जन के जीवन को आलोक प्रदान करेगा। महामहिम विश्वसन्त अध्यात्मयोगी उपाध्यायप्रवर पूज्य गुरुदेव श्री पुष्करमुनि जी महाराज, जो स्वर्गीय युवाचार्य मधुकर मुनि जी के परम स्नेही-साधी रहे हैं, उनके मार्गदर्शन और आर्शीवाद के कारण ही मैं प्रस्तावना की कुछ पंक्तियाँ लिख सका हूँ। सुज्ञेषु किं बहुना । ज्ञानपंचमी / १७-११-८५ जैनस्थानक -देवेन्द्रमुनि वीरनगर, दिल्ली-७ [५३]
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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