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________________ आगम में जो वर्णन है, वह श्रद्धायुग का वर्णन है। आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से प्राचीन भूगोल को सिद्ध करना जरा टेढ़ी खीर है। क्योंकि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में जिन क्षेत्रों का वर्णन आया है, जिन पर्वतों और नदियों का उल्लेख हुआ है, वे वर्तमान में कहाँ है, उनकी अवस्थिति कहाँ है, आदि कह पाना सम्भव नहीं है । सम्भव है इसी दृष्टि से शास्त्रीजी ने अपनी लेखनी इस पर नहीं चलाई है। श्वेताम्बर परम्परा अनुसार जम्बूद्वीप, मेरुपर्वत, सूर्य, चन्द्र आदि के सम्बन्ध में आगमतत्त्वदिवाकर, स्नेहमूर्ति श्री अभयसागर जी महाराज दत्तचित्त होकर लगे हुए हैं। उन्होंने इस सम्बन्ध में काफी चिन्तन किया है और अनेक विचारकों से भी इस सम्बन्ध में लिखवाने का प्रयास किया है। इसी तरह दिगम्बर परम्परा में भी आर्यिका ज्ञानमती जी प्रयास कर रही हैं। हम आध्यात्मिक दृष्टि से चिन्तन करें तो यह भौगोलिक वर्णन हमें लोकबोधिभावना के मर्म को समझने में बहुत ही सहायक है, जिसे जानने पर हम उस स्थल को जान लेते हैं, जहाँ हम जन्म-जन्मान्तर से और बहुविध स्खलनों के कारण उस मुख्य केन्द्र पर अपनी पहुँच नहीं बना पा रहे हैं जो हमारा अन्तिम लक्ष्य है। हम अज्ञानवश भटक रहे हैं । यह भटकना अन्तहीन और निरुद्देश्य है, यदि आत्मा पुरुषार्थ करता है तो वह इस दुष्चक्र को काट सकता है। भूगोल की यह सबसे बड़ी उपयोगिता है-इसके माध्यम से आत्मा इस अन्तहीन व्यूह को समझ सकता है। हम जहाँ पर रहते हैं या जो हमारी अनन्तकाल से जानी-अनजानी यात्राओं का बिन्दु रहा है, उसे हम जानें कि वह कैसा है ? कितना बड़ा है ? उसमें कहाँ पर क्या-क्या है ? कितना हम अपने चर्म-चक्षुओं से निहारते हैं ? क्या वही सत्य है या उसके अतिरिक्त भी और कुछ ज्ञेय है ? इस प्रकार के अनेक प्रश्न हमारे मन और मस्तिष्क में उबुद्ध होते हैं और वे प्रश्न ऐसा समाधान चाहते हैं, जो असंदिग्ध हो, ठोस हो और सत्य पर आधृत हो। प्रस्तुत आगम में केवल जम्बूद्वीप का ही वर्णन है। जम्बूद्वीप तो इस संसार में जितने द्वीप हैं उन सबसे छोटा द्वीप है। अन्य द्वीप इस द्वीप से कई गुना बड़े हैं। जिसमें यह आत्मा कोल्हू के बैल की तरह आँखों पर मोह की पट्टी बाँधे धूम रहा है। हमारे मनीषियों ने भूगोल का जो वर्णन किया है उसका यही आशय है कि इस मंच पर यह जीव अनवरत अभिनय करता रहा है। अभिनय करने पर भी न उसे मंच का पता है और न नेपथ्य का ही। जब तप से, जप से अन्तनेत्र खुलते हैं तब उसे ज्ञान के दर्पण में सारे दृश्य स्पष्ट दिखलाई देने लगते हैं कि हम कहाँ-कहाँ भटकते रहे और जहाँ भटकते रहे उसका स्वरूप यह है। वहाँ क्या हम अकेले ही थे या अन्य भी थे? इस प्रकार के विविध प्रश्न जीवन-दर्शन के सम्बन्ध में उबुद्ध होते हैं। जैन भूगोल मानचित्रों का कोई संग्रहालय नहीं है और न वह रंगरेखाओं, कोणों-भुजाओं का ज्यामितिक दृश्य ही है। सर्वज्ञ सर्वदर्शी महापुरुषों के द्वारा कथित होने से हम उसे काल्पनिक भी नहीं मान सकते। जो वस्तुस्वरूप को नहीं जानते और वस्तुस्वरूप को जानने के लिये प्रबल पुरुषार्थ भी नहीं करते, उनके लिये भले ही यह वर्णन काल्पनिक हो, किन्तु जो राग-द्वेष, माया-मोह आदि से परे होकर आत्मचिन्तन करते हैं, उनके लिये यह विज्ञान मोक्षप्राप्ति के लिये जीवनदर्शन है, एक रास्ता है, पगडंडी है। ' जैन भूगोल का परिज्ञान इसलिये आवश्यक है कि आत्मा को अपनी विगत/आगत/अनागत यात्रा का ज्ञान हो जाये और उसे यह भी परिज्ञान हो जाये कि इस विराट विश्व में उसका असली स्थान कहाँ है ? उसका अपना गन्तव्य क्या है ? वस्तुतः जैन भूगोल अपने घर की स्थितिबोध का शास्त्र है । उसे भूगोल न कहकर जीवनदर्शन १. तीर्थंकर, जैन भूगोल विशेषाङ्क-डॉ. नेमीचन्द जैन इन्दौर [५२]
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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